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प्रथम अध्याय
ग्रन्थ का स्वरूप :
केवलज्ञान के निर्मल प्रकाश में षड्द्रव्यात्मक लोक के स्वरूप को जान करके तीर्थकर परमात्मा ने गणधरभगवंतों को “उपनेई वा, विगमेइ वा, धुवेई वा” रूप इस त्रिपदी का उपदेश देकर उन्हें षड्द्रव्यात्मक लोक के यथार्थ स्वरूप का दर्शन कराते हैं। गणधरभगवंत परमात्मा प्रदत्त इस त्रिपदी के माध्यम से मात्र अन्तर्मुहूर्त में ही चौदहपूर्व सहित समस्त द्वादशांगी की रचना करते हैं। इस संपूर्ण श्रुतसागर के चार अनुयोग या विभाग हैं। - 1. द्रव्यानुयोग, 2. चरणकरणानुयोग, 3. गणितानुयोग और 4.धर्मकथानुयोग । अनुयोग से तात्पर्य है – व्याख्यान पद्धति या विषय विवेचन करने की शैलीविशेष। प्रथम द्रव्यानुयोग में पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, नवतत्त्व, लोक का स्वरूप, कर्म, योग, लेश्या ध्यान, आदि-आदि विषयों का समावेश होता है। जिस अनुयोग में मुख्य रूप से आचारमार्ग या क्रियामार्ग की चर्चा होती है, वह चरणकरणानुयोग कहलाता है। गणितानुयोग में क्षेत्र आदि का माप, संख्या, काल का स्वरूप आदि गणित से सम्बन्धित विषयों की जानकारी होती है। धर्मकथानुयोग में कथाओं, प्रसंगों, उदाहरणों, उपमाओं आदि के माध्यम से धर्मोपदेश किया जाता है।
इन चारों अनुयोगों में द्रव्यानुयोग महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ दुरूह भी है। न्यायविशारद महोपाध्याय यशोविजयजी प्रणीत–'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' द्रव्यानुयोग का अद्भुत ग्रन्थ रत्न है, जो द्रव्यानुयोग में प्रवेश करने के लिए द्वार समान है। यशोविजयजी संस्कृत-प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी प्रस्तुत ग्रन्थ को जनभोग्य बनाने के लिए अपनी मातृभाषा गुजराती (मरूगुर्जर) में गेयस्वरूप में अर्थात रास के रूप में रचना की है। रास के रूप में होते हुए भी इस ग्रन्थ में किसी चरित्रनायक का गुणगान न होकर द्रव्य, गुण, पर्याय जैसे गहन पदार्थों का गुर्जर काव्य में सचोट और सरल निरूपण है। न्यून से न्यून शब्दों में अधिक से अधिक बोध हो, इस दृष्टि से द्रव्य, गुण और पर्याय की इस दार्शनिक चर्चा को ढाल में
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