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परपक्ष के खण्डन एवं स्वपक्ष के मण्डन के रूप में ही लिखे गये। जबकि यशोविजयजी का प्रस्तुत ग्रन्थ जैनतत्त्वमीमांसा के प्रतिपादन के रूप में ही है। इस ग्रन्थ की विशेषताएं निम्न प्रकार हैं :
जहाँ तक मेरी जानकारी है, जैन तत्त्वमीमांसा पर स्वतन्त्र रूप से लोकभाषा में अर्थात् मरूगुर्जर भाषा में लिखे गये ग्रन्थों में उपाध्याय यशोविजयजी का 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का प्रथम स्थान है। इस ग्रन्थ की दूसरी विशेषता यह है कि यह ग्रन्थ विद्वानों के लिए न लिखा जाकर जन-साधारण को जैन तत्त्वमीमांसीय का बोध कराने के लिए लिखा गया है।
इस ग्रन्थ की शैली अन्य मतों की खण्डनमण्डनरूप न होकर जैनदृष्टि से स्वरूप के प्रतिपादनात्मक ही है। इस ग्रन्थ के पूर्व जैन दार्शनिक साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ मूलतः परपक्ष के खण्डन और स्वपक्ष के मण्डन के रूप में ही लिखे गये। जबकि यह ग्रन्थ मुख्य रूप से द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप प्रतिपादन के लिए ही लिखा गया है। यद्यपि कहीं-कहीं परपक्ष की तत्त्व सम्बन्धी मान्यताओं की समीक्षा मिल जाती है, फिर भी यहाँ लेखक का उद्देश्य परपक्ष की समीक्षा नहीं रही है। जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और 'सम्मतितर्कप्रकरण' जैन तत्त्वमीमांसा के प्रारम्भिक ग्रन्थ हैं, वहाँ यह ग्रन्थ दर्शनयुग के ग्रन्थों में अन्तिम ग्रन्थ कहा जा सकता है।
जहाँ तत्त्वमीमांसीय ग्रन्थों में द्रव्य, गुण और पर्याय की चर्चा हुई है, वहाँ वह दार्शनिक गुत्थियों में उलझती हुई नजर आती है। जबकि यशोविजयजी के इस 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य, गुण और
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