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यशोविजयजी के दार्शनिक कृतियों में प्रस्तुत कृति की विशेषता –
सामान्यतया जैन आगमों में जैनदर्शन के विविध पक्षों का प्रस्तुतिकरण हुआ है। अतः जैनदर्शन के मूलभूत आधार तो जैनागम ही हैं, किन्तु जहाँ तक आगमों का प्रश्न है, उनमें जैन तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं का सामान्यतया ही प्रतिपादन हुआ है। जैसे लोक की चर्चा करते हुए लोक को पंचास्तिकायरूप बताया गया है अथवा कहीं-कहीं षद्रव्यों का भी विवेचन किया गया है। अस्तिकाय और षद्रव्यों के इस विवेचन में मुख्य रूप से उनके सामान्य स्वरूप और उनके सामान्य प्रकारों की ही चर्चा हुई है। दार्शनिक और तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से उनका विवेचन दर्शनयुग के ग्रन्थों में ही पाया जाता है। इस दृष्टि से जैन दार्शनिक ग्रन्थों के क्षेत्र में 'सन्मतितर्कप्रकरण' एक ऐसा ग्रन्थ है जो अनेकान्तिक दृष्टि से तत्त्व के स्वरूप को प्रस्तुत करता है। यद्यपि जैन दार्शनिक साहित्य के क्षेत्र में 'सन्मतितर्कप्रकरण' और 'तत्त्वार्थसूत्र' की रचना के पश्चात् द्रव्य के दार्शनिक या तत्त्वमीमांसीय स्वरूप का प्रतिपादन किया जाने लगा था और सत्ता के इस अनेकान्तिक स्वरूप को प्रकट करने के लिए इन दोनों ग्रन्थों के पश्चात् भी अनेक ग्रन्थ लिखे गये। उन ग्रन्थों में तत्त्वमीमांसीय चर्चा विस्तार से प्राप्त होने पर भी वे सभी ग्रन्थ मूलतः या तो प्राकृत में या संस्कृत में ही लिखे गये।
सिद्धसेन दिवाकर के काल से लेकर यशोविजयजी के काल तक लगभग 1300 वर्ष की दीर्घ अवधि में जैनदर्शन सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों का लेखन हुआ और इन ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में विभिन्न दार्शनिकों के उदाहरणों या मतवादों की समीक्षा करके वस्तु के अनेकान्तिक और तात्विक स्वरूप को प्रकट करने का प्रयत्न भी हुआ है। यद्यपि दर्शनयुग के विभिन्न ग्रन्थों में ज्ञान मीमांसीय और आचार मीमांसीय पक्षों को अधिक उभारा गया है। इन ग्रन्थों में जैन तत्त्वमीमांसा की चर्चा अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा के रूप में ही अधिक हुई है। सिद्धसेन से लेकर उपाध्याय यशोविजयजी तक जो जो अनेक दार्शनिक ग्रन्थ लिखे गये हैं वे वस्तुतः
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