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और ध्रौव्य में अविनाभाव सम्बन्ध है उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय में भी अविनाभाव सम्बन्ध है। सत्ता के स्तर पर उनमें भेद नहीं होता है। परन्तु विचार के स्तर पर उनमें भेद किया जा सकता है। जो पर्याय जिस काल की होती है, उसी काल में अभिन्न होती है, कालान्तर में वह अलग हो जाती है। पूर्वकालीन पर्यायें द्रव्य से अभिन्न होकर नहीं रहती हैं। अत: उनका भेद होता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने यहां यह भी स्पष्ट किया है कि जहाँ द्रव्य के गुण त्रिकाल में उसके साथ अभिन्न होकर ही रहते हैं। वहां पर्याय अपने स्वकाल में ही द्रव्य से अभिन्न होती है, अन्यकाल में वह द्रव्य से अलग ही रहती है। अतः जहां द्रव्य नित्य है, वहां पर्याय अनित्य है। किन्तु द्रव्य का पर्याय के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होने से इतना तो कहा जा सकता है कि द्रव्य के अभाव में गुण एवं पर्याय कुछ भी नहीं है। इन सबकी चर्चा हमने प्रस्तुत शोध ग्रन्थ के तृतीय अध्याय एवं षष्टम् अध्याय में विस्तार से की है। द्रव्य, गुण और पर्याय में निमित्त और उपादान दोनों कारणों की आवश्यकता है।
इस अध्याय में उपाध्याय ने द्रव्य, गुण, पर्याय और उनके पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर बौद्धों और जैनों में क्या अन्तर है ? इसे भी स्पष्ट किया है। जहां एक ओर बौद्ध दार्शनिक पर्याय से पृथक् द्रव्य की सत्ता ही नहीं मानते हैं वहां यशोविजयजी ने उनके मत का निरसन करते हुए कहा है कि ज्ञेय की वास्तविक सत्ता को अस्वीकार करके मात्र ज्ञानाकार को ही सत् मानने पर घट, पट आदि पौद्गलिक पदार्थों के अस्तित्व के बिना ही केवल वासना विशेष से ही घट पट का ज्ञान हो जायेगा। घट-पट आदि के अभाव में यह ज्ञान घटाकार रूप है, यह ज्ञान पटाकार रूप है, ऐसा स्पष्ट बोध भी नहीं होगा। इसलिए यशोविजयजी का बौद्धों के विरोध में यह कहना है कि द्रव्य और पर्याय की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक है। उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिपदी प्रतिसमय प्रतिपदार्थ में रहती है। जैसा हमने पूर्व में भी संकेत किया है कि उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही वस्तु में समकाल में रहते हैं। उत्पाद के बिना व्यय और व्यय के बिना उत्पाद संभव नहीं
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