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द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी भाव न होकर उनमें तादात्म्य सम्बन्ध हैं। किन्तु यह दोनों ही परम्परा समुचित नहीं है। उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्य और गुण के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर एक भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। वे यह मानते हैं कि यद्यपि इन दोनों में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध है, परन्तु वह इस प्रकार का नहीं है जैसे देवदत्त घर में रहता है, इस कथन में है। वस्तुतः यहां द्रव्य-गुण की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करते हुए उनमें भेदरूप आश्रय-आश्रयी भाव व्यक्त किया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी आश्रय-आश्रयीभाव तो मानते हैं, किन्तु वे उसे एकान्त भेदरूप नहीं मानते हैं। वे यह भी नहीं कहते हैं कि वस्तु मात्र गुणों का समूह है। वस्तुतः उनकी दृष्टि द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर न तो एकान्त भेद की और न एकान्त अभेद की है। वे यह अवश्य कहते हैं कि द्रव्य के बिना गुण और गुण के बिना द्रव्य नहीं होता है। किन्तु यहां उनके कथन का तात्पर्य यह है कि द्रव्य और गुण में सत्ता के स्तर पर परस्पर अभेद है और वैचारिक के स्तर पर भेद भी परिलक्षित होता है। द्रव्य और गुण में न तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध है। वस्तुतः उनमें भेदाभेदरूप सम्बन्ध है। अस्तित्व की दृष्टि से एक क्षेत्रावगाही होने से उनमें अभेद सम्बन्ध है तो वैचारिक स्तर पर किसी भी गुण विशेष की सत्ता सर्वथा एकरूप नहीं होने से उनमें भेद भी है। अतः द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर वे भी भेदाभेदवादी ही हैं। वैचारिक स्तर पर उनमें भेद किया जाता है। किन्तु सत्ता के स्तर पर उनमें अभेद ही रहा हुआ है। उनके अनुसार जिस प्रकार दीवार और उसमें अंकित चित्र में परस्पर सम्बन्ध है, उसी प्रकार द्रव्य और गुण में भी परस्पर सम्बन्ध है। जिस प्रकार मूल, स्कन्ध, शाखाएं, पत्ते, फूल और फल आदि मिलकर वृक्ष कहलाते हैं वैसे ही गुण भी परस्पर समन्वित होकर द्रव्य कहलाते हैं।
उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि पर्याय के सम्बन्ध में भी भेदाभेद रूप ही रही है। वे एक ओर द्रव्य से पृथक् पर्याय की और पर्याय से पृथक् द्रव्य की सत्ता को नहीं मानते हैं, किन्तु दूसरी ओर वे यह भी मानते हैं कि पर्याय उत्पन्न होती है
और नष्ट भी होती है। अतः कोई भी पर्याय द्रव्य के साथ त्रिकाल में नहीं रहती है। इसलिए पर्याय द्रव्य से पृथक् भी है और द्रव्य का एक अंश भी है। जिस प्रकार व्यय
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