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वस्तुतः उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि में वस्तु को उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक मानने के लिए अथवा वस्तु का स्वरूप अनंतधर्मात्मक है यह बताने के लिए पर्याय की अवधारणा आवश्यक है । भारतीय चिन्तन में जहां वेदान्त और किसी सीमा तक सांख्य ने द्रव्य के अपरिवर्तनशीलता को महत्त्व दिया वहीं दूसरी ओर बौद्धों ने पर्याय या परिणमनशीलता को ही स्वीकार करते हुए द्रव्य की सत्ता का ही निषेध कर दिया। जैन दार्शनिकों ने दोनों में समन्वय करते हुए वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य बताया है। आलापपद्धति में 'गुण विकाराः पर्याय' कहकर पर्याय को सत्ता का परिवर्तनशील पक्ष ही बताया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने पर्यायों की विभिन्न प्रकारों की विस्तार से चर्चा करते हुए पर्यायों के आठ प्रकारों की चर्चा की है, जैसे शुद्ध व्यंजन पर्याय, अशुद्ध व्यंजन पर्याय, शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय, अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय, शुद्ध गुण व्यंजन पर्याय, अशुद्ध गुण व्यंजन पर्याय, शुद्ध गुण अर्थ पर्याय और अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय। इसके अतिरिक्त भी पर्यायों के अनेक भेद किये गये हैं । जैसे सजातीय द्रव्य पर्याय, विजातीयद्रव्यपर्याय, स्वाभाविक गुणपर्याय, वैभाविक गुणपर्याय । प्रस्तुत अध्याय में उपाध्याय यशोविजयजी ने पर्यायों के उपरोक्त भेदों की चर्चा करते हुए यह भी बताया है कि वस्तुतः पर्यायों के ये भेद अपूर्ण ही हैं। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य की अनंत पर्याय भूतकाल में हो चुकी है और अनंत पर्याय भविष्यकाल में होगी । अतः पर्यायों को सीमित करके नहीं बताया जा सकता है। पर्यायों के भेदों का कोई भी वर्गीकरण सीमित ही होगा। जबकि पर्यायें एक द्रव्य की अपेक्षा से भी अनंत हैं और द्रव्य समूह और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर भी अनंत है । उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार ऐसी अनंत पर्यायों को सीमित भाषा में बांधकर विवेचित नही किया जा सकता है।
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द्रव्य, गुण, पर्याय के इस चर्चा के उपरान्त हमने षष्टम् अध्याय में यह बताने का प्रयास किया है कि विभिन्न नयों के आधार पर द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध कैसे घटित होता है । यद्यपि पूर्व में द्रव्य नामक तृतीय अध्याय में गुण और पर्यायों के साथ द्रव्य का क्या सम्बन्ध है इसकी चर्चा कर चुके हैं । किन्तु
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