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मृगमरीचिका में जल का भ्रम होता है। ज्ञान चाहे भ्रमात्मक हो अथावा प्रमात्मक, दोनों ही स्थिति में विषयभूत पदार्थ का अस्तित्व अवश्य होता है। अतः ज्ञान में निमित्त बनने वाले बाह्य पदार्थ और उनके उत्पाद आदि विलक्षण वास्तविक हैं।
पुनः बाह्यवस्तु के अभाव में ज्ञान उत्पन्न होता है तो सुख के साधनों की उपस्थिति में सुखाकार ज्ञान की तरह दुःख के साधनों की विद्यमानता में भी सुखाकार ज्ञान होना चाहिए। नील-पीतादि वस्तु के बिना ही काली और श्वेत वस्तुओं के योग में भी नील-पीतादि आकार का ज्ञान होना चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं है। यह अनुभव सिद्ध बात है कि सुख के साधनों से सुख और दुःख के साधनों से ही दुःख का ज्ञान होता है। नील-पीतादि वस्तु के योग में ही नील-पीतादि आकार का ज्ञान होता है। इसलिए बाह्यपदार्थों को ज्ञान और वासना में निमित्तभूत मानना ही पड़ेगा। अन्यथा ज्ञेय पदार्थ के बिना प्रतिनियत ज्ञान का भी अभाव हो जाने से यह संसार सर्वथा शून्यरूप हो जायेगा। इस प्रकार बाह्यपदार्थों के अपलाप से तो सर्वशून्यवादी माध्यमिक बौद्धों का मत ही सिद्ध होता है, परन्तु योगाचार का मत सिद्ध नहीं होता है। इसलिए पदार्थ और इष्टानिष्टसाधनता के ज्ञान की विषयता रूप उत्पादादि पर्यायें-दोनों ही वास्तविक हैं। एक ही बाह्यवस्तु को देखकर भिन्न-भिन्न प्रमाताओं में भिन्न-भिन्न ज्ञान उत्पन्न होता है। रूपवती और सुसज्जित युवती को देखकर भोगी के मन कामवासना के भाव (ज्ञान) और योगी के मन में वैराग्य के भाव जागृत होते हैं। क्योंकि कामुकता के ज्ञान की विषयतारूप पर्याय और वैराग्य के ज्ञान की विषयतारूप पर्याय दोनों ही उस युवती रूप ज्ञेय में विद्यमान है। ज्ञेय में भिन्न-भिन्न ज्ञान का विषय बनने वाली अनंत पर्यायें होती हैं।
माध्यमिक बौद्धों का सर्वशून्यवाद प्रमाणपूर्वक है, तो संसार में प्रत्यक्ष आदि प्रमाण की सत्ता होने से सर्वशून्यवाद का खण्डन स्वतः हो जाता है और यदि वे
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