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'जो श्याम है वह रक्त नहीं है' (श्यामो न रक्तः) इस उदाहरण में श्यामत्व और रक्तत्व नामक धर्मों में ही भेद परिलक्षित होता है न कि घट नामक धर्मी में। इसका अर्थ यह हुआ कि विविध धर्मों में ही भेद होता है। किन्तु धर्मी में कोई भेद नहीं होता है। ऐसा मान लेने पर तो घटो न पटः, जड़ो न चेतनः इत्यादि प्रसंगों में भी घटत्व–पटत्व, जड़त्व-चेतनत्व आदि धर्मों में ही भेद को मानना पड़ेगा और घटद्रव्य, पटद्रव्य, जड़द्रव्य, चेतनद्रव्य में कोई भेद ही नहीं होकर घट, पटादि सभी द्रव्य एक हो जायेगें। यहाँ प्रत्यक्ष से विरोध है।1450 क्योंकि जगत में घट, पटादि भिन्न-भिन्न द्रव्य के रूप में प्रसिद्ध है। पुनः अत्यन्त भिन्न द्रव्यों को एक रूप मान लेने से तो घट का कार्य जलधारण पट से और पट का कार्य शरीराच्छादन घट से, जड़ का कार्य चेतन से और चेतन का कार्य जड़ से हो जायेगा जिससे संसार में अव्यवस्था खड़ी हो जायेगी। इसलिए जहाँ धर्म में भेद होता है वहाँ धर्मी में भी भेद अवश्य होता है। परन्तु अभेद की कोई संभावना नहीं रहती है। अतः जगत में किसी भी वस्तु का स्वरूप भेदाभेदात्मक या उभयात्मक नहीं होता है। ऐसी नैयायिक आदि की मान्यता है।
__ "श्यामो, न रक्तघटः", "रक्तो, न श्यामघटः" इस उदाहरण में जिस प्रकार श्यामघटकाल में रक्तघट का और रक्तघटकाल में श्यामघट का प्रतियोगी के रूप में उल्लेख मिलता है उसी प्रकार "घटो, न पट:" और "पटो, न घट" तथा "यो जड़: सः न चेतनः, और यश्चेतनः, स न जड़ः" इन उदाहरणों में भी प्रतियोगी के रूप में धर्मियों का उल्लेख समान रूप से ही मिलता है।1451 यदि धर्म ही परिवर्तित हो और धर्मी वैसा का वैसा रहता हो तो प्रतियोगी के रूप में धर्मी का उल्लेख ही नहीं होना चाहिए। क्योंकि धर्मी अपरिवर्तनशील होने से दोनों ही अवस्थाओं में विद्यमान ही होगा। इसलिए उसे अप्रतियोगी होना चाहिए। परन्तु धर्मी का प्रतियोगी के रूप में
1450 "श्यामो न रक्तः" इहां श्यामत्व रक्तत्व धर्मनो भेद भासइ छइं, पणि धर्मि घटनो भेद न भासई"
इम जो कहिई तो जड़ चेतननो भेद भासइ छइं, तिहां जड़त्व चेतनत्व धर्मनो ज भेद,
पणि जड़ चेतन द्रव्यनो भेद नहीं ? इम-अवयवस्था थाइ 1451 धर्मीनो प्रतियोगिपणइं उल्लेख तो मे सरखो छइ .. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.4/6 का टब्बा
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