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2. अर्थान्तरनाश :
संयोग या विभाग के द्वारा मूलभूत द्रव्य का ही बदल जाना अर्थान्तरनाश कहलाता है। पर्यायार्थिकनय के अनुसार पर्याय ही बदलती है परन्तु द्रव्य तो वैसा का वैसा ध्रुव रहता है, ऐसा नहीं है। पर्याय के बदलने पर द्रव्य भी पूर्व पर्याय के रूप में नष्ट होता है और उत्तर पर्याय के रूप में उत्पन्न होता है।28 इस अर्थान्तरनाश को समझाने के लिए यशोविजयजी ने अणु का उदाहरण दिया है। 29 एक परमाणु का दूसरे परमाणु से संयोग होने पर द्विप्रदेशी स्कन्ध का उत्पाद होता है। जब द्वयणुक बनता है उस समय अणु का अणुद्रव्यत्व ही नहीं रहता है। अणु रूप मूल द्रव्य का ही नाश हो जाने से यह अर्थान्तरनाश कहलाता है।
इसका आशय कदापि यह नहीं है कि द्रव्य का सर्वथा नाश हो जाता है या एक द्रव्य अन्य द्रव्य के रूप में बदल जाता है। जीव, अजीव के रूप में कभी भी नहीं बदलता है। किसी भी द्रव्य का अर्थान्तर नही होता हैं एक अणु का दूसरे अणु के साथ संयोग होने पर अणुता का नाश होता है और स्कन्ध का उत्पाद होता है। यह भी पुद्गल द्रव्य का अणु से स्कन्ध के रूप में रूपान्तर ही है। परन्तु संयोगजन्य, विभागजन्य या उभयजन्य नाश आदि रूपान्तरनाश होने पर भी व्यवहार से या स्थूलदृष्टि से ऐसा लगता है कि जैसे कोई नवीन द्रव्य का उत्पाद हुआ हो और पूर्व द्रव्य का नाश हुआ हो। इसी बात को समझाने के लिए ही नाश के रूपान्तरनाश और अर्थान्तरनाश दो भेद किये हैं।30 देवदत्त के बाल, युवा और वृद्धावस्था स्वरूप पर्यायों का बदलना रूपान्तर नाश कहा जाता है और देवदत्त की मृत्यु के बाद देवपर्याय को प्राप्त करना अर्थान्तर नाश कहलाता है। यहाँ देवदत्त का मनुष्य पर्याय से देवपर्याय के रूप में पर्यायान्तर होने पर भी जैसे द्रव्य बदल गया
728 पूर्व सत् पर्यायई विणसइ, उत्तर असत् पर्यायइं उपजइ ते पर्यायार्थिक नयनो परिणाम कहिओ ..
...... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टब्बा, गा. 9/24 729 अणुनइ अणु अंतर संक्रमइ, अर्थान्तरगतिनो ठाम रे .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/25 730 अणनइ छइं यद्यपि खंधता, रूपान्तर अणु संबंध रे
संयोग विभागादिक थकी, तो पणि ऐ ऐ भेद प्रबंध रे।। ........ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9/26
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