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प्रमाण परिगृहीत वस्तु का एकांश नय किस प्रकार है, इस बात को स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी कहते हैं – प्रमाण अनन्त धर्मात्मक समस्त वस्तु का ग्राहक होता है, जबकि नय केवल उसके एक धर्म को ग्रहण करता है। इस कारण नय, प्रमाण का एक अंश हैं यही प्रमाण और नय में अन्तर है। जैसे समुद्र का एक अंश न समुद्र कहा जा सकता है और न असमुद्र ही। इसी प्रकार नय न प्रमाण है और न अप्रमाण है। वह प्रमाण का एक अंश है।158
महोपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में वस्तु के त्रयात्मक स्वरूप को समझाते हुए नय को एकांशग्राही बताया है।159 घट-पटादि लौकिक पदार्थ तथा जीव, अजीव आदि लोकोत्तर पदार्थ द्रव्य, गुण, पर्याय रूप से त्रयात्मक हैं। घट मिट्टी से अभिन्न होने से द्रव्यात्मक, घटरूप मिट्टी की अवस्था विशेष होने से पर्यायात्मक तथा श्यामादि रूप-रंगादि गुणों से अभिन्न होने से गुणात्मक है। जीव भी जीवरूप से द्रव्यात्मक, मनुष्यादि रूप से पर्यायात्मक ज्ञानादि रूप से गुणात्मक
आगे यशोविजयजी 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में लिखते हैं - त्रयात्मक पदार्थ का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है। प्रमाण द्रव्यादि त्रयात्मक (द्रव्य, गुण, पर्याय) वस्तु को मुख्यवृत्ति से जानता है। 60 प्रमाण पदार्थ का सर्वांशग्राही बोध है। जैसे प्रमाण घट को गुण पर्याय से अभिन्न मृदद्रव्य मानता है। नय अनन्त पर्यायों और गुण से युक्त पदार्थ के किसी एक धर्म का निश्चय करता है या अनेक दृष्टिकोणों से परिष्कृत वस्तु तत्त्व के एकांश को ग्रहण करता है। जैसे – द्रव्यार्थिक नय पदार्थ को द्रव्यात्मक मानता है तो पर्यायार्थिक नय वस्तु को पर्यायात्मक मानता है। परन्तु ये
158 प्रमाणैकदेशत्वात् ...........
जैनतर्कभाषा, पृ. 59 159 नयवादी जे एकांशवादी ..................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 5/1 160 एक अरथ त्रयरूप छाई, देखयो भलइ प्रमाणइ रे मुख्यवृत्ति उपचारथी, नयवादी पण जाणइ रे .. ..... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/1
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