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दोनों ही नय वस्तु के इतर अंश को गौणरूप से स्वीकार करते हैं। नयवादी वस्तु के द्रव्य, गुण, पर्याय में से एक को मुख्यवृत्ति से मानते हैं तो शेष दो को लक्ष्णारूप उपचार से मानते हैं।161
2. श्रुतज्ञान का विकल्प नय :
आचार्य पूज्यपाद ने प्रमाण के दो भेद किए हैं – एक स्वार्थ प्रमाण और दूसरा परार्थ प्रमाण। श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष सब ज्ञान स्वार्थप्रमाण हैं।162 सर्वार्थसिद्धि में श्रुतज्ञान के भी दो भेद किये गये हैं – एक स्वार्थश्रुतज्ञान और दूसरा परार्थश्रुतज्ञान । स्वार्थश्रुतज्ञान ज्ञानात्मक होता है और वचनात्मक श्रुतज्ञान परार्थ प्रमाणरूप है तथा इसी श्रुतज्ञान का विकल्प भेद नय कहलाता है। 183 श्रुतप्रमाण के द्वारा जाने गए अर्थ के किसी एक धर्म का कथन करना नय है।164
नय सर्वदेश और कालवर्ती पदार्थों को जानने में समर्थ है। जबकि मतिज्ञान आदि ज्ञानों का विषय परिमित है।165 केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूप से त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है। किन्तु नय परोक्ष होने से उन्हें परोक्षरूप से जानता है। अतः श्रुतज्ञान के बिना मति आदि चारों ज्ञानों में नय का अभाव ही है। श्रुतज्ञान में ही नयों का समवतार हो सकता है। श्रुतज्ञान को ज्ञान का मूलकारण मानकर ही नयज्ञानों की प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है। श्रुतज्ञान का आश्रय लिये हुए
वही
161 यद्यपि नयवादी नई एकांश वचनई ............... द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा. 5/1 162 तत्र प्रमाणं द्विविध ............ .......... . तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, 1/6 13 श्रुतं पुनः स्वार्थ
.............. - नीयते गम्यते येन श्रुतायो नयो हि सः .... तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1/88/6 hts जैनदर्शन में नय की अवधारणा, डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 7 9 नयवाद, मुनि फूलचन्द्र, पृ. 13 7 श्रुतमूला नया सिद्धो
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 2/1/6
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