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ज्ञान का, जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण करता है, वही नय कहलाता है । '
169
इसलिए श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं । '
3. ज्ञाता या वक्ता का अभिप्राय नय :
प्रमाण का विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु है । प्रमाण वस्तु के संपूर्ण अंगों के समस्त धर्मों को ग्रहण करता है। किन्तु अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म की मुख्यता से जब वक्ता अपने अभिप्राय के अनुसार कथन करता है, तब वह नय का विषय बन जाता है। जैसे एक ही स्त्री किसी की पत्नी है तो किसी की माता भी है । अनेक सम्बन्धों की अपेक्षा से उसके अनेक सम्बन्धी भी है । किन्तु मातृत्व धर्म की विवक्षा से पुत्र उसे माँ कहेगा तथा पत्नीत्व धर्म की विवक्षा से पति उसे अपनी पत्नी बतायेगा। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। 170 लगभग यही अभिप्राय आलापपद्धति 171 में निर्दिष्ट नय के लक्षण में देखा जाता है ।
172
आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एकांश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय बताया है । 17 इस व्याख्या में अनिराकृत प्रतिपक्ष पद रखकर गौण शब्द को स्पष्ट किया है। जिन धर्मों को प्रतिपक्ष मानकर गौण किया गया है, उनका निराकरण या निषेध नहीं किया गया है। अपितु उन धर्मों के विषय में मौन रखा गया है। यही गौणता है। अतएव मुख्यता और गौणता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा से नहीं, बल्कि वक्ता या ज्ञाता के अभिप्राय के अनुसार होती है । 173 इस प्रकार अन्य धर्मों को गौण करके जिस अभिप्राय से
168 जं णाणीणवियप्पं
169 श्रुतविकल्पो वा
170 ज्ञानं प्रमाणमादेरूपाया
71 ज्ञातुभिप्राय वा नयः
12 तत्राऽनिराकृतप्रतिपक्षो
173 जैनदर्शन में नय की अवधारणा
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नयचक्र, गा. 173
आलापपद्धति, सू. 181
लघीयस्त्रय, का.52
आलापपद्धति, सू. 181
प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. 657
डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ. 10
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