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14. समाचारीप्रकरण :
इस ग्रन्थ में इच्छा, मिथ्यादि दश प्रकार की साधु समाचारी का तार्किक रूप में प्रतिपादन किया गया है।
स्वरचित किन्तु स्वोपज्ञ टीका रहित ग्रन्थ -
1. ज्ञानसार :
ज्ञानसार उपाध्याय यशोविजयजी की एक प्रौढ़ आध्यात्मिक कृति है। इस ग्रन्थ की रचना पू. उपाध्यायजी ने सं. 1711 में सिद्धपुर के चातुर्मास के समय में की थी। मूल संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में 32 अष्टक हैं और प्रत्येक अष्टक में अनुष्टुप छन्द में रचित आठ-आठ श्लोक हैं। इसके बाद उपसंहार के 12 श्लोक, ग्रन्थ के प्रशस्ति के पांच श्लोक और बालावबोध के तीन श्लोक हैं। इस प्रकार कुल 276 श्लोकों में प्रणीत इस ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने न केवल गंभीर चिन्तन को प्रस्तुत किया है, अपितु कवि सुलभ कल्पनाओं, काव्यालंकारों, लौकिक दृष्टान्तों आदि से ग्रन्थ को रोचक भी बनाया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्ण मगन, स्थिरता, मोहत्याग, ज्ञान, शम, इन्द्रियजय, त्याग, क्रिया, तृप्ति, निर्लेप, निःस्पृह, मौन, विद्या, विवेक, मध्यस्थ, निर्भय, अनात्मप्रशंसा, तत्त्वदृष्टि, सर्वसमृद्धि, कर्मविपाक चिन्तन, भवोद्वेग, लोकसंज्ञात्याग, शास्त्रदृष्टि, परिग्रह, अनुभव, योग, नियाग, पूजा, ध्यान, तप और सर्वनयाश्रय इत्यादि 32 अष्टकों में आत्मस्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक साधक को परमार्थदृष्टि से जिन-जिन गुणों की आवश्यकता है, उनका विशद प्रतिपादन किया है। दूसरे शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि 'ज्ञानसार' जीवन में उच्चस्थिति को प्राप्त करने हेतु उत्सुक साधक के लिए मार्गदर्शिका के समान है। कुछ समर्थ विद्वानों ने 'ज्ञानसार' को 'जैनधर्म की गीता'
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