________________
श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान इन पांच ज्ञानों की सूक्ष्मता, गहनता और जटिलता के साथ मीमांसा की गई है। ग्रन्थ के तर्क-वितर्क की गहनता, अगाधता और अर्थगंभीरता आदि का ध्यान रखते हुए स्वयं उपाध्यायजी ने इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ विवरण भी लिखा था, ऐसा उल्लेख मिलता है।
11. धर्मपरीक्षा :
उपाध्याय यशोविजयजी ने 'धर्मपरीक्षा में उत्सूत्रप्ररूपण का निराकरण किया है। स्वपक्ष के प्रबल तर्कों के साथ स्वपक्षमान्य सूत्रों के अर्थों का जिस गहराई से चिन्तन और चर्चा की गई, इस दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में उपाध्यायजी द्वारा चर्चित विषय प्रायः अपूर्व है और इसमें इन्होंने विषयों के स्पष्टीकरण के लिए अनेक ग्रन्थों के संदर्भ दिये हैं।
12. महावीरस्तव :
इस ग्रन्थ में मुख्यरूप से बौद्ध और नैयायिक के एकान्तवाद का खण्डन किया गया है।
13. भाषारहस्य :
'भाषारहस्य' यशोविजयजी द्वारा रचित प्रकरण ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में रचित है और इस पर उपाध्यायजी ने संस्कृत भाषा में स्वोपज्ञ विवरण भी लिखा हैं। इसमें प्रज्ञापना आदि सूत्र में प्रतिपादित भाषा के अनेक भेद और प्रभेदों पर विशेष प्रकाश डाला गया है। भाषा को मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त किया गया है। - . नामभाषा, 2. स्थापना भाषा, 3. द्रव्यभाषा और 4. भावभाषा। ये भेद दशवैकालिक आदि ग्रन्थों में वर्णित सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा और न सत्य न असत्य भाषा से भिन्न है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org