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________________ 124 आगमिक परंपरा को मान्यता देते हुए यशोविजयजी उनके समीक्ष्य ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में मूल रूप से द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय को ही स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार जो नय द्रव्य, गुण, पर्याय के परस्पर अभेद को मुख्य रूप से ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है।200 जैसे- 'घट' को मृद्रव्य, रक्तवर्णादि गुण, कंबुग्रीवादि पर्याय से अभिन्न मानना। द्रव्यार्थिकनय अभेदग्राही है। इसके विपरीत पर्यायार्थिक नय मृदादिद्रव्य, रूपादिगुण तथा घटादि पर्याय के परस्पर भेद को मुख्य रूप से स्वीकार करता है।201 पर्यायार्थिक नय भेदग्राही है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय द्रव्यगुणपर्याय के परस्पर अभेद को मुख्यतः और भेद को उपचार से ग्रहण करता है, जबकि पर्यायार्थिक नय भेद को मुख्यतः और अभेद को उपचार से ग्रहण करता है। यदि ये दोनों ही नय स्वमान्य मुख्यार्थ से भिन्न विषय या अन्य नय मान्य मुख्यार्थ को उपचार से स्वीकार नहीं करते हैं तो सुनय न होकर दुर्नय बन जाते हैं।202 दूसरे शब्दों में एकान्त पक्ष को ग्रहण करने से मिथ्यात्व के पोषक बन जाते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने सुनय, दुर्नय सम्बन्धी इस विचार का समर्थन विशेषावश्यकभाष्य03 और सन्मतितर्क के आधार पर किया है। सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार वही नय सुनय है जो अन्य नयों के मन्तव्य का निषेध नहीं करता है। इसके विपरीत जो नय अपने अतिरिक्त अन्य नयों के मन्तव्य को मिथ्या मानता है वह दुर्नय है।204 200 मुख्यवृत्तिं द्रव्यारथो, तास अभेद वखाणइ द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 5/2 201 मुख्यवृत्तिं सवि लेखवई, पर्यायरथ भेदई ........ ...... वही, गा. 5/3 202 भिन्न विषय नयज्ञानमा जो सर्वथा न भासई .............. .... वही, गा. 5/5 203 दोहि वि ण्येहिं णीअं, सत्थमूलएण तह विमिच्छतं ..................... विशेषावश्यकभाष्य, गा. 2/95 204 णिययवयणिज्जसच्चा सत्वणया पर वियालणेमोहा ................... सन्मतिसूत्र, गा. 1/28 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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