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________________ 346 प्राचीन ग्रन्थों में गुण शब्द का अर्थ - __प्राचीनतम आगम 'आचारांगसूत्र'7 में 'गुण' शब्द का प्रयोग संसार (आवर्त) या इन्द्रियों के विषय के अर्थ में किया गया है। इस सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि "जे गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे।" इन्द्रियों के विषय भोग की आकांक्षा के कारण संसार है और संसार के परिणाम स्वरूप इन्द्रियों के विषय है। 'सूत्रकृतांगसूत्र958 में प्रतिवादकर्ता साधु को 'बहुगुणप्रकल्प' होना चाहिए, ऐसा उल्लेख है अर्थात् प्रतिवादी साधु प्रतिपक्षी के हृदय में स्नेह, सद्भावना, आत्मीयता, साधु संस्था के प्रति श्रद्धा, धर्म के प्रति आकर्षण, वीतराग देवों के प्रति बहुमान आदि अनेक गुण उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। इसी सूत्र में अन्यत्र मद, निन्दा, आसक्ति इत्यादि तथा सुखशीलता, कामभोग, प्रमाद के त्याग को एवं समता आदि गुणों को मोक्ष के साधन माना गया हैं। यहाँ दोनों ही संदर्भ में 'गुण' शब्द अच्छाइयाँ (Virtues) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्थानांगसूत्र में 'अंश' के अर्थ में गुण शब्द का प्रयोग किया गया है। पुद्गलद्रव्य में कितने अंशवाले वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलों की एक वर्गणा होती है, इस संदर्भ में गुण शब्द का अंश के अर्थ में प्रयोग किया है। इसी सूत्र में आगे जीवद्रव्य को उपयोग गुणवाला बताया है। यहाँ गुण शब्द 'लक्षण' के रूप में प्रयुक्त हुआ है। उपयोग जीव का लक्षण है। __भगवतीसूत्र में यद्यपि गुण शब्द का उपयोग सामान्य रूप से अच्छाइयां या सद्गुणों के अर्थ में प्रयोग किया गया है, परन्तु ‘स्वभाव' के अर्थ में भी 'गुण' को प्रयुक्त किया गया है। अगुरूलघु को द्रव्यों का गुण कहा है। द्रव्य के जिस स्वभाव के कारण उसके गुण बिखर कर अलग नहीं होते हैं उस स्वभाव को अगुरूलघुगुण कहा जाता है। 957 आचारांगसूत्र, 1/1/5/40, 1/2/1/65, 1/5/3/200 958 अ) बहुगुणप्पगायइं कज्जा अत्तसमाहिए। जेणऽण्णो ण विरूज्झेज्जा तेण तं तं समायरे।। ................... सूत्रकृतांग, 1/3/3/22 ब) अभविंसु पुरा वि .. सूत्रकृतांग, 1/2/3/162 959 अ) स्थानांगसूत्र, 1/243 से 247, ब) गुणओ उवओगगुणे – स्थानांग, 5/3/173 960 अ) भगवइ, 7/9/12 ब) भगवइ, 11/107, 108 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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