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चतुर्थ अध्याय
जैनदर्शन में गुण का स्वरूप एवं प्रकार
'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का मुख्य प्रतिपाद्य विषय द्रव्य, गुण और पर्याय हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्यों के स्वरूप, लक्षण एवं भेद-प्रभेदों के विवेचन के पश्चात् गुणों के स्वरूप, लक्षण एवं भेद - प्रभेदों की चर्चा भी विस्तार से की है। यद्यपि द्रव्य को गुण - पर्याययुक्त अथवा गुण और पर्याय के भाजन रूप में परिभाषित करने से द्रव्य के स्वरूप, लक्षण आदि की चर्चा में गुण की चर्चा भी सामान्यरूप से समाहित हो ही जाती है, तथापि गुण क्या है ? गुण कितने प्रकार के और कौन-कौन से हैं ? गुण का द्रव्य और पर्याय से क्या सम्बन्ध है ? किस द्रव्य के कितने और कौन-कौन से गुण होते हैं ? क्या एक गुण अन्य गुणों के रूप में परिणमित हो सकता है या नहीं ? गुण और स्वभाव में क्या अन्तर है ? इत्यादि प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं। गुण के स्वरूप को समीचीन रूप से अवगत हुए बिना द्रव्य के सर्वांगीण स्वरूप को जान पाना भी संभव नहीं है । इस दृष्टि से यशोविजयजी ने इस ग्रन्थ में गुण का भी विशद विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
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1. गुण शब्द के विभिन्न अर्थ
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जैन वाङ्मय में गुण शब्द विभिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन आचार्यों द्वारा आचारमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में संदर्भ के अनुसार 'गुण' शब्द का प्रयोग विविध अर्थों में किया जाता रहा है। जैसे - इन्द्रियों के भोग के विषय, संसार ( आवर्त), सद्गुण (अच्छाइयाँ), शक्ति या शक्ति के अंश या भाग, स्वभाव, लक्षण, द्रव्याश्रित गुणधर्म इत्यादि ।
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