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अतः प्रतिसमय प्रत्येक जीवादि द्रव्य में अनंत उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य हैं। इस संदर्भ में यशोविजयजी ने सन्मतिप्रकरणसूत्र की एक गाथा भी उद्धृत की है।
एगसमयम्मि एगदवियस्स, बहुआ वि होंति उप्पाया उप्पायसमा विगमा, ठिइ उ उस्सग्गओ णियमा 712
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उत्पाद, व्यय के भेद और प्रभेद
महोपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी कृति 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन लक्षणों को अत्यधिक विस्तार से प्रतिपादन करने के बाद उत्पाद और व्यय के भेदों की चर्चा भी सन्मति सूत्र के आधार पर सूक्ष्मदृष्टि से की है। नैयायिक आदि ईश्वरवादी दर्शनों के अनुसार प्राणी के प्रयत्न से अथवा अप्रयत्न से होने वाले समस्त उत्पाद और व्यय ईश्वराधीन होने से ईश्वरप्रयत्नजन्य है । ईश्वरवादियों की इन मान्यताओं के विपरीत जैनदर्शन की मान्यताओं को सूचित करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं सभी उत्पाद और विनाश प्रयत्नजन्य नहीं होते हैं । उत्पाद दो प्रकार का होता है । प्रयत्नजन्य अर्थात् प्रयोगज तथा अप्रयत्नजन्य अर्थात् विस्रसा। 713
712 सन्मतिप्रकरण सूत्र, गा. 3 / 41
713 द्विविध प्रयोगज वीससा, उत्पाद प्रथम अविशुद्ध रे
था
272
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अ. प्रयोगज उत्पाद :
प्राणी के प्रयत्न से होने वाले उत्पाद को प्रयोगज उत्पाद कहा जाता है। मिट्टी से घट तथा तन्तु से पट का उत्पाद कुंभकार आदि के प्रयत्न से होता है। यह प्रयोगज उत्पाद है। यह उत्पाद नियम से समुदाय में ही होता है। मिट्टी के अनेक बिखरे हुए कणों के एकत्र होने पर ही घट का निर्माण होता है। जहाँ अनेक प्रदेश (कण) कारण होते हैं वहाँ इस नियत प्रदेश का ही यह कार्य (घट) है, ऐसा नहीं
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 9 / 19
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