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________________ सूरिपुरन्दर हरिभद्रसूरि के लगभग 900 वर्ष पश्चात् हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने दार्शनिक विरोधियों का आक्रमण तथा चैत्यवासियों का शिथिलाचार आदि अपने युग की समस्याओं का दृढ़ता से सामना करके शास्त्रीय और सत्यमार्ग का प्ररूपण किया। जैनदर्शन के क्षेत्र में यशोविजयजी प्रथम दार्शनिक हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम जैनदर्शन में नव्य न्यायशैली का प्रयोग करके जैनदर्शन को न्याय के क्षेत्र में शिखर पर विराजमान करने का यशस्वी कार्य किया। पं. सुखलालजी लिखते हैं - "मात्र हमारी दृष्टि से ही नहीं परन्तु हर किसी तटस्थ विद्वान की दृष्टि से जैन संप्रदाय में उपाध्याय जी का स्थान वैदिक परंपरा में शंकराचार्य के समान है।" हम सर्वप्रथम उनके जीवन वृतान्तों एवं व्यक्तित्व को प्रस्तुत करेंगे। गृहस्थ जीवन - पूर्व साहित्यकार यश, कीर्ति एवं नाम से दूर रहकर निर्लिप्त भावना से लोक कल्याण के लिए शास्त्र-सर्जन किया करते थे। फलतः उनकी रचनाओं में उनके जीवन सम्बन्धी तथ्यों का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। उपाध्याय यशोविजयजी भी यश और कीर्ति की आकांक्षा से रहित निर्मल साधु जीवन जीने वाले योगी पुरूष थे। इसी कारण से उनके स्वरचित शताधिक ग्रन्थों के होने पर भी कहीं पर भी उनके जीवन सम्बन्धी जानकारी दृष्टिगोचर नहीं होती है। कहीं-कहीं गुरू परंपरा का उल्लेख अवश्य देखने में आता है। उनके समकालीन एवं निकटवर्ती जैन लेखकों ने उनके विषय में जो ग्रन्थ एवं प्रशस्तियाँ लिखी है, वे इस प्रकार हैं - 1. समकालीन मुनि कान्तिविजयजी कृत 'सुजसवेलीभास' | 2. वि.स. 1663 में वस्त्र पर आलेखित मेरूपर्वत के चित्रपट की प्रशस्ति। 3. हेमधातुपाठ की प्रतिलिपि की प्रशस्ति । +उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ से उद्धृत, पृ. 38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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