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उपाध्याय यशोविजयजी का व्यक्तित्व
भारत की भूमि सदैव ही संत पुरुषों एवं योगी महात्माओं की चरण-रज से पावन होने के कारण पवित्र भूमि रही है और हमेशा रहेगी। यही वह पुनीत भूमि है, जहाँ धर्म-मार्ग को बताने वाले एवं जन्म-जरा-मरण रूप संसार से तारनेवाले तीर्थंकरों ने जन्म लिया, जिनकी कल्याणकारी देशना से अनेक भव्यात्माओं ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चरित्र की सम्यक् साधना कर अपने आत्म कल्याण को साधा है। ऐसे तीर्थकरों के विरहकाल में उन्हीं की पावन वाणी से प्रतिबोध को प्राप्त हुए गणधर भगवंतों, श्रुतकेवली भगवंतों चौदह पूर्वधर मुनि भगवंतों एवं बहुश्रुत आचार्यों ने ज्ञान की गंगा निरन्तर प्रवाहित कर जिनशासन की अपूर्व सेवा की है। पूर्व मनीषियों ने इन आचार्यों की पावन वाणी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसे संस्कृत और प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध करके अनेक ग्रन्थों का सृजन किया। इनमें कुन्दकुन्द जिनभद्र, उमास्वाति, पूज्यपाद, अकलंक, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभ्रद हेमचन्द्र आदि प्रमुख रहे हैं। इसी धारा में 17 वीं शताब्दी में उपाध्याय यशोविजयजी हुए जो एक विलक्षण एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, तथा जिन्होने अपने समस्त जीवन को शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन और सृजन के लिए समर्पित कर दिया |
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जैन परंपरा के इतिहास में उपाध्याय यशोविजयजी की छाप एक प्रखर नैयायिक, बहुश्रुत शास्त्रज्ञ, समर्थ साहित्यकार और प्रतिभा संपन्न समन्वयकार के रूप में रही है। सर्वशास्त्र पारंगत एवं सूक्ष्मद्रष्टा महोपाध्याय यशोविजयजी ही एक ऐसे अन्तिम विद्वान हुए हैं, जिन्हें हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्राचार्य जैसे अलौकिक प्रज्ञापुरूषों की पंक्ति में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यशोविजयजी जिनशासन के उन महान प्रभावक महापुरूषों में एक हैं जिनके वचनों को प्रमाणभूत माना जाता है, क्योंकि इनमें तार्किक शिरोमणि सिद्धसेन दिवाकर जैसी तर्कशक्ति थी तो हरिभद्रसूरि जैसी तीक्ष्ण प्रज्ञा और सर्वग्राही समन्वयात्मक दृष्टि भी थी। यही कारण है कि यशोविजयजी को 'हरिभद्रसूरि का लघुबांधव' भी कहा जाता है।
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