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उनके अनुसार शुद्ध गुण में अर्थ पर्याय नहीं होती है। इस मत का खण्डन करने हुए ग्रन्थकार यशोविजयजी कहते हैं -यद्यपि केवलज्ञान जीव का क्षायिकभावजन्य शुद्ध गुण होने से उसमें षट्गुण हानि–वृद्धिरूप अर्थ पर्याय नहीं होती है फिर भी जगतवर्ती समस्त पदार्थों में प्रतिसमय अगुरूलघुगुण के कारण अपने ही स्वभाव में षट्गुण, हानि-वृद्धि के रूप में घटित होनेवाले रूपान्तरण या अर्थपर्याय को जानने के रूप में केवलज्ञान में भी अर्थपर्याय होती है। 1244 षट्गुण हानि-वृद्धि के रूप में परिवर्तनशील ज्ञेय को जानने के रूप में ज्ञान भी तदानुसार अवश्य परिवर्तित होता है। इसलिए परिवर्तनशील ज्ञेय को जाननेवाले केवलज्ञान की प्रतिसमयवर्ती पर्याय भी पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न है।
पुनः काल की अपेक्षा से भी केवलज्ञान प्रतिसमय बदलता है। जैसे जिस समय आत्मा को केवलज्ञान होता है, उस समयवाला, वह केवलज्ञान प्रथमसमयावच्छिन्न सयोगीभवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। द्वितीय समय में वही केवलज्ञान अप्रथमसमयावच्छिन्न, द्वितीयसमयावच्छिन्न कहलायेगा। इस प्रकार तृतीय, चतुर्थसमयावछिन्न के रूप में केवलज्ञान प्रतिसमय बदलता है। एतदर्थ सूक्ष्मऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों में भी अर्थपर्याय घटित होती
है। 1245
8. अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय :
_ अशुद्ध गुण की क्षणवर्ती पर्याय, अशुद्ध गुण अर्थ पर्याय कहलाती है। क्षयोपशम भाव के आधार पर प्रतिसमय मतिज्ञानादि गुणों में होने वाले हानि-वृद्धि रूप रूपान्तरण अशुद्ध गुण अर्थपर्याय है।1246 मतिज्ञान आदि जीव द्रव्य के ज्ञानगुण की
1244 "केवलज्ञानादिक शुद्धगुण व्यंजन पर्याय ज होइ, तिहां अर्थपर्याय नयी" एहवी कोइक दिक्पटाभासनी __ शंका टालइ छ।
..... .... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/7 का टब्बा 1245 पढमसमय सजोगिभवस्थ केवलनाणे, अपढमसमयसजोगिभवस्थकेवलणाणे" इत्यादि वचनात्।
ते माटि ऋजुसूत्रदेशइं शुद्धगुणना पणिं अर्थपर्याय मानवा.......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 14/7 का टब्बा 1246 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 664
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