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वस्तु के एक-एक अंश को ज्ञात कराने पर भी पूर्ण अंश का ग्राही नहीं होने से विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। इस प्रकार निश्चयनय तत्त्वार्थग्राही होने पर भी अंशग्राही है। परन्तु पूर्णज्ञान रूप नहीं है।
इस प्रकार महोपाध्याय यशोविजयजी ने देवसेनकृत निश्चय और व्यवहारनय की व्याख्या को असंगत बताने के बाद निश्चयनय और व्यवहारनय के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट किया है।
निश्चयनय -
निश्चयन नय अभ्यन्तरभावों को उपचार से बाह्यअर्थ के साथ जोड़ता है, सर्व व्यक्तियों में अभेद करता है और द्रव्य की निर्मल परिणति को प्रधानता से मानता है।
निश्चयनय बाह्य भौतिक पदार्थों की अवास्तविकता (उपचार) को समझाकर अभ्यन्तर भावों को ही वास्तविक बताता है।560 इसका अर्थ यह नहीं है कि बाह्यपदार्थ मात्र काल्पनिक और मिथ्या हैं। परन्तु बाह्य धन, धान्य, पुत्र, कलत्र आदि पदार्थों की सत्ता वास्तविक होने पर भी उनसे आत्मा का कोई हित नहीं होता है। इन पदार्थों से आत्म सुख की प्राप्ति नहीं होती है। इस दृष्टि से निश्चयनय बाह्यपदार्थों की उपादेयता को औपचारिक रूप से स्वीकृत करके आन्तरिक भावों को ही सुख का वास्तविक साधन मानता है। इस बात को समझाने के लिए यशोविजयजी ने 'ज्ञानसार' के एक श्लोक को उद्धृत किया है।561 जैसे इन्द्र महाराज के लिए नंदनवन, वज्ररत्न, पटरानी, महाविमान आदि भोग विलास के साधन है। वैसे ही उच्चतम वैभव और श्रेष्ठ संपत्ति मुनि के पास भी हैं। मुनि के पास समाधि रूपी नंदनवन, धैर्यरूपी वज्र, समतारूपी इन्द्राणी और ज्ञानरूपी महाविमान है। इन्द्र का नंदनवन आदि बाह्य वैभव अन्त में दुःख का ही निमित्त बनता है। परन्तु समाधि, धैर्य,
560 जो बाह्यअर्थनई उपचारइं अभ्यंतरपणु करिइं ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.8/22 561 समाधिर्नन्दनं धैर्य दम्भोलिः समता शची। ज्ञानं महाविमानं च वासवश्रीरीयं मुनेः ।। .......
ज्ञानसार, श्लोक 20/2
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