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समता और ज्ञान इत्यादि मुनि महात्मा के आभ्यन्तर वैभव हैं जो परम आत्मिक सुख का कारण है। बाह्य पदार्थ की उपमा द्वारा आंतरिक परिणति को पहचाना निश्चयनय का विषय है।
निश्चयनय का दूसरा अर्थ यशोविजयजी ने यह किया है कि - निश्चयनय व्यक्तियों में अभेद दिखाता है।562 जैसे– 'एगे आया 53 | द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1 में लेखक धीरजलाल डाह्यालाल महेता ने 'एगे आया' के स्थान पर ‘णो आया' इस पाठ को मान्य रखकर व्याख्या की है। परन्तु द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-1 लेखक अभयशेखरसूरि ने 'एगे आया ऐसे पाठानुसार व्याख्या की है। हमें आगमों में भी यही पाठ मिलता है और हमारी दृष्टि में यही उचित प्रतीत होता है। संसारिक जीवों में कर्मोदय के कारण सुखी, दुःखी, रोगी, निरोगी, पशु, मनुष्य, देव, नारकी, स्त्री, पुरूष आदि विभिन्न भेद होते हुए भी इन सभी भेदों को औदायिक भावजन्य मानकर निश्चयनय शुद्धात्म स्वरूप की दृष्टि से सभी जीवात्माओं को एक, अभिन्न और समान मानता है।
वेदान्तदर्शन में भी 'ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या' ऐसा कहकर 'आत्मा एक है ऐसा माना गया है। यह शुद्ध संग्रहनय का विषय होकर निश्चयनय का ही विषय बनता है। परन्तु एकान्त कथन होने से वेदान्तमान्य उपरोक्त वाक्य सुनय का वाक्य न होकर दुर्नय का वाक्य बन जाता है।
निश्चयनय के तीसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए यशोविजयजी कहते हैंबाह्यक्रिया आदि से निरपेक्ष द्रव्य के आन्तरिक परिणाम निश्चयनय का विषय हैं।564 द्रव्य से आशय यहां संसारी जीव हैं। क्योंकि निश्चयनय अध्यात्मनय का भेद है और अध्यात्म परिणति जीव द्रव्य की ही होती है। जैसे– 'आया सामाइए, आया समाइस्स
562 जो घणी व्यक्तिनो अभेद देखाडिइ ते पणि
निश्चयनयार्थ जाणवो, जिम 'एगो आया' ...... ....................... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/22 का टब्बा
563 स्थानांगसूत्र, 1 564 तथा द्रव्यनी जे निर्मल परिणति, बाह्यनिरपेक्ष जे परिणाम . द्रव्यगुणपर्यायनोरास का टबा, गा.8/22
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