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असद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद किये गये हैं507 -1. उपचरित असद्भूत व्यवहार नय, 2. अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय
1. उपचरित असद्भूत व्यवहारनय :
प्रस्तुत नय भेदयुक्त वस्तुओं में सम्बन्ध को मानता है।500 यशोविजयजी ने भी असंश्लेषित योग से कल्पित सम्बन्ध को विषय बनाने वाले नय को उपचरित असद्भूत व्यवहारनय कहा है। जैसे- देवदत्त का धन।09 यहाँ देवदत्त और धन में असंश्लेषित संयोग है। दो द्रव्यों का लोह और अग्नि की तरह तादात्म्य सम्बन्ध हो जाना अर्थात् एकमेव बन जाना संश्लेषित योग है। इसके विपरीत दो द्रव्यों का परस्पर एकमेव न होना असंश्लेषित योग है। 'देवदत्त का धन' में देवदत्त और धन में लोहग्नि की तरह तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है अपितु स्वस्वामीभाव रूप कल्पित सम्बन्ध है। इस प्रकार असंश्लेषित योग होने से उपचार है। देवदत्त और धन दोनों भिन्न द्रव्य होने से असद्भूत हैं। षष्ठी विभक्ति के द्वारा भेद बताया गया है। इसलिए व्यवहारनय है।
2. अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय :
जो परस्पर संयोगजन्य वस्तुओं के सम्बन्ध को अपना विषय बनाता है, वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है।10 यशोविजयजी ने भी प्रस्तुत नय का विषय संश्लेषित योग से बने सम्बन्ध को बताया है। जैसे 'आत्मा का शरीर 511 यहाँ आत्मा
507 असद्भूत व्यवहारो द्विविध ..
.. आलापपद्धति, सू. 223 508 तत्र संश्लेषरहित वस्तु सम्बन्ध विषय
आलापपद्धति, सू. 224 50' असद्भूत व्यवहारना जी, इम ज भेद छइ होई प्रथम असंश्लेषितयोगईजी देवदत्त धन जोई रे
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/6 510 संश्लेषसहित वस्तु संबंध विषयोऽनुपचरिता सद्भूत व्यवहारो .... आलापपद्धति, सूत्र. 225 511 संश्लेषित योगइ बीजो रे, जिम आतमनो देह ................. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 8/7
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