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सामान्य भी दो प्रकार का होता हैं1394 –
1. ऊर्ध्वतासामान्य
2. तिर्यक्सामान्य
ऊर्ध्वतासामान्य -
पदार्थगत वह शक्ति जो क्रमशः हो चुकी और होनेवाली समस्त पर्यायों में एकरूप से विद्यमान रहती है, वह ऊर्ध्वतासामान्य शक्ति है। दूसरे शब्दों में कालकृत विभिन्न अवस्थाओं में समाहित द्रव्यविशेष का एकत्व या ध्रुवत्व ऊर्ध्वतासामान्य है। इस ऊर्ध्वतासामान्य को समझाने के लिए ग्रन्थकार ने घट का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे मिट्टी से पिंड-स्थास (रकाबी जैसा गोलाकार) कोश ( ऊंची दीवार से युक्त गोलाकार) कुशूल (कोठी जैसा आकार) घट (नीचे से बड़ा और ऊपर से छोटा आकारवाला) कपाल (घट के फूट जाने से बने टुकड़े) आदि विभिन्न नवीन-नवीन पर्यायों के कालक्रम से उत्पन्न होने पर भी मिट्टी बदलती नहीं है। मिट्टी वही की वही रहती है। यही पिंडादि आकारों का ऊर्ध्वतासामान्य है।1395
इस ऊर्ध्वतासामान्य में द्रव्य एक होता है और उसकी कालक्रम से उत्पन्न होनेवाली पर्यायें अनेक होती है। इन पर्यायों के बदलने पर भी द्रव्य का स्वरूप बदलता नहीं है। न बदलनेवाले द्रव्य का यह स्वरूप ही ऊर्ध्वतासामान्य है। मनुष्य की अवस्थाएँ बाल्यावस्था, युवावस्था आदि के रूप में बदलने पर भी मनुष्यपना नहीं बदलता है। जीव बार-बार मरकर के देव-नारकी-तिर्यंच-मनुष्य आदि विभिन्न अवस्थाओं को अनेक बार प्राप्त करने पर भी जीवद्रव्य का नाश नहीं होता है। जीव कदापि अजीव के रूप में परिवर्तित नहीं होता है। जीवत्व सदा वैसा का वैसा रहता है। इस प्रकार अपनी विभिन्न पर्यायों में अनुगत रहने वाला द्रव्यत्व ही
1394 ते सामान्य 2 प्रकारइं छइं,
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/4 का टब्बा 1395 उरधता सामान्य शक्ति ते, पूरव अपर गुण करती रे। पिंडकुशूलादिक आकारिं, जिम माटी अणफिरती रे।। .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/4
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