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जो नय गुण और गुणी को, स्वभाव और स्वभाववान को, पर्याय और पर्यायी को अथवा धर्म और धर्मी को अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।25 यह नय द्रव्य-गुण–पर्याय में भेद की कल्पना नहीं करता है, अपितु यह द्रव्य को अपने गुण और पर्यायों से तथा गुण–पर्याय को अपने द्रव्य से अभिन्न मानता है। आत्मा न ज्ञान स्वरूप है, न दर्शनस्वरूप है और न ही चारित्र स्वरूप है, अपितु आत्मा तो शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है।226
4. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :
जो नय कर्मों की उपाधि से युक्त अशुद्ध द्रव्य को अपना विषय करता है, वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।227
संसारी जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच कारणों से कर्मों को ग्रहण करता है।28 जीव की योगशक्ति से आकृष्ट होकर तथा रागद्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर कर्मपुद्गल आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् एकमेव होकर ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में परिणत हो आत्मा से बद्ध हो जाते हैं। जब ये कर्म अपना काल परिपक्व होने पर उदय में आते है तब जीव उस कर्म के स्वभावानुसार व्यवहार करने लग जाता है। क्रोधादि कर्मों के उदय से अपने उपशम स्वभाव को विस्मृत कर क्रोधादि करता है। दूसरे शब्दों में क्रोधादि के उदय में तन्मय होकर तद्रूप आचरण करने लग जाता है। इस प्रकार क्रोध के उदय से जीव को क्रोधी, मान के उदय में मानी इत्यादि कहा जाता है।
नयचक्र, गा. 192
225 गुणगुणियाइचउक्के ................. 226 ववहारेणुवदिस्सदि ................ 227 भेद-कल्पना-सापेक्षः अशुद्ध द्रव्यार्थिको 228 मिथ्यादर्शना-विरति-प्रमाद ........
.......................... आला
समयसार, गा. 7
आलापपद्धति, सू. 50 .......... तत्त्वार्थसूत्र, 8/1
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