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सप्तम् अध्याय
उपसंहार
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जैन दार्शनिकों की परम्परा में उत्तर - मध्यकाल में उपाध्याय यशोविजयजी का व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं उन्होंने तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमांसा या योगसाधना की दृष्टि से अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया और तत्सम्बन्धी पूर्वाचार्यो के ग्रन्थों पर अनेक टीकाएँ लिखीं हैं। उन्होंने न केवल श्वेताम्बर आचार्यों की कृतियों पर टीकाएँ लिखी, अपितु दिगम्बर एवं हिन्दू परम्परा के आचार्यों की कृतियों पर भी टीकाएँ लिखी है। उन्होंने मौलिक एवं टीकाग्रन्थों को मिलाकर लगभग शताधिक कृतियों की रचना की । श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र और हेमचन्द्र के बाद यदि कोई अपने व्यक्तित्व और कृतित्व की दृष्टि से बहुआयामी व्यक्तित्व है तो वह उपाध्याय यशोविजयजी है । इनका साहित्य भाषा और विषयवस्तु दोनों की दृष्टि से विशिष्ट है। उन्होने अनेक विषयों पर अनेक भाषाओं में साहित्य की रचना की । मौलिक ग्रन्थों और टीका ग्रन्थों की दृष्टि से विचार करें तो उनके ग्रन्थों की संख्या शताधिक है। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी के 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' नामक ग्रन्थ का अध्ययन एवं शोधकार्य निश्चित ही मेरे जीवन का सुखद संयोग ही है ।
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यद्यपि उपाध्याय यशोविजयजी ने धर्म और दर्शन के विविध पक्षों पर विविध ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु उनमें से उनके तत्त्वमीमांसीय ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का शोध की दृष्टि से चयन करने का एक विशेष कारण था । आगमयुग के पश्चात् मध्यकाल में जैनधर्म-दर्शन के क्षेत्र में जो साहित्य लिखा गया. वह आचार और साधना प्रधान था। बाद में ज्ञानमीमांसीय या न्याय को लेकर जैनाचार्यों ने ग्रन्थ रचना की थी । जैन तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में प्रायः कम ही लिखा गया और जैन न्यायग्रन्थों में भी जो जैन तत्त्वमीमांसीय उल्लेख मिलते हैं वे प्रमेय के स्वरूप और लक्षण से सम्बन्धित ही है । द्रव्य, गुण और पर्याय एवं उनके पारस्परिक
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