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________________ 112 नय प्रमाता का एक दृष्टिाकोण विशेष है जिसमें किसी वस्तु के अन्य पक्षों को छोड़कर एक विशेष पक्ष को समझाने का संकल्प छिपा रहता है।44 आगम में नय को नेत्र की उपमा दी गई है, जिससे स्पष्ट होता है कि नय वस्तु के पक्ष विशेष को जानने का साधन है। आचार्य माइल्लधवल का कथन है -"अपने-अपने प्रतिनियत स्वभाव से युक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को नय और प्रमाण रूपी नेत्रों से देखना चाहिए।145 उन्होने यह भी कहा है कि – जो नयरूपी दृष्टि से रहित हैं उन्हें वस्तु के स्वरूप का सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तुस्वरूप के सम्यग्ज्ञान से रहित जीव सम्यग् दृष्टि नहीं हो सकता है। भगवान महावीर के पश्चात् विभिन्न युगों में होने वाले जैन आचार्यों ने समय-समय पर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद की युगानुकूल व्याख्या करके उसे पल्लवित और पुष्पित किया है। इस क्षेत्र में सबसे अधिक और सबसे पहले अनेकान्तवाद और नयवाद को विशद रूप देने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा आचार्य समन्तभद्र ने किया। आचार्य सिद्धसेन ने अपने ‘सन्मतितर्क प्रकरण नामक ग्रंथ में नयों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया हैं मध्ययुग में इस कार्य को आचार्य हरिभद्र और आचार्य अकलंकदेव ने आगे बढ़ाया। नव्यन्याय युग में वाचक यशोविजयजी ने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद को नव्यन्याय की शैली में नयरहस्य, नयोपदेशादि तर्क ग्रन्थ लिखकर इन सिद्धान्तों को अजेय बनाने का सफल प्रयत्न किया। भारतीय दर्शन, यदुनाथ सिन्हा, पृ. 51 5 जीवा पुग्गलकालो .............. नयचक्र, गा. 3 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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