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अनन्तधर्मात्मक वस्तु को जाना तो जा सकता है, परन्तु उसे निरपेक्ष रूप से वाणी के द्वारा कहा जाना अथवा उसका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। वस्तु के किस धर्म को पहले कहा जाए और उसके कौन से धर्म को बाद में कहा जाए, इसका कोई पौर्वापर्य नियम भी नहीं बन पाता है। इसलिये जैनदर्शन में वस्तु के एक-एक धर्म को क्रमपूर्वक निरूपण किया जाता है। वस्तु के इस सापेक्ष निरूपण की प्रक्रिया ही नय अथवा नयमार्ग है।141 संक्षेप में किसी विषय के सापेक्ष निरूपण को नय कहते
जो दर्शन एकान्वादी हैं, वे वस्तु को एक धर्मात्मक ही मानते हैं। इसलिए उनमें प्रमाण के सिवाय अंशग्राही के ज्ञान के रूप में नय की कोई चर्चा ही नहीं है। किन्तु अनेकान्तवादी जैनदर्शन का काम नय के बिना नहीं चल सकता है, क्योंकि अनेकान्त का मूल नय है। कहा भी है - णयमूलो अणेयंतो42 अर्थात् अनेकान्त नयमूलक है।
नय का सिद्धान्त जैनदर्शन का अपना विशिष्ट सिद्धान्त है। जड़ और चेतन के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए यह सिद्धान्त एक सर्वांगीण दृष्टि प्रस्तुत करता है। यह सिद्धान्त विभिन्न एकांगी दृष्टियों में सुन्दर व साधार समन्वय स्थापित करता है। नय किसी वस्तु को समझने के लिए दृष्टिकोण विशेष है। किसी एक ही वस्तु के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मनुष्यों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। जैसे- उद्यान में जाने के अनेक मार्ग होते हैं। कोई पूर्व से जाता है तो कोई पश्चिम से जाता है, तो कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण मार्ग से जाता है। किन्तु अन्दर जाकर वे सभी मार्ग परस्पर मिल जाते हैं। इसी प्रकार एक ही वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं और उन सबका परस्पर समन्वय भी होता है। यह विभिन्न दृष्टिकोणों के समन्वय का मार्ग ही नयमार्ग है। 143
14। जैनदर्शन में नय की अवधारणा, डॉ. धर्मचन्द्र जैन, पृ.1 12जस सत्थाणं माई ................... नयचक्र, गा. 175 13 नयवाद, मुनि फूलचन्द्र, पृ. 15
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