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में मूर्तता स्वभाव है । परन्तु असद्भूतव्यवहारनय की दृष्टि शरीरादि मूर्त द्रव्य के सम्बन्ध से जीव में भी उपचरित मूर्तता स्वभाव है। वर्ण आदि गुण से रहित होने से स्वभावतः आत्मा अमूर्त होने पर भी क्षीरनीर की तरह आत्मा और शरीर मिश्रित होने से व्यवहारनय से जीव भी मूर्त कहा जाता है। जैसे पद्मप्रभु और वासुपूज्य रक्त वर्ण के हैं, इत्यादि । पुद्गल विना के शेष पांच द्रव्यों में अमूर्तता सहज रूप से होने से परमभावग्राहकनय की अपेक्षा से इन धर्मादि द्रव्यों का अमूर्तता स्वभाव है। 1169 परन्तु पुद्गलद्रव्य में अमूर्ततास्वभाव असद्भूत व्यवहारनय से भी नहीं होता है। यद्यपि पुद्गल और जीव क्षीरनीर की तरह परस्पर मिले हुए होने पर भी जीव के संयोग से पुद्गल के मूर्तस्वभाव का निरसन नहीं होता है, फिर भी पुद्गलद्रव्य में अमूर्तता स्वभाव को मिलाकर जो 21 स्वभाव का वर्णन किया गया है, वह परमाणु की अपेक्षा से ही है। क्योंकि अद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से परमाणु इन्द्रिय गोचर नहीं होने से वह अमूर्त है | 1170
एकप्रदेश और बहुप्रदेश स्वभाव
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय दोनों असंख्यप्रदेशी तथा आकाशास्तिकाय अनन्तप्रदेशी द्रव्य होने पर भी एक और अखण्ड द्रव्य हैं। जीवद्रव्य अनन्त हैं और प्रत्येक जीव असंख्यप्रदेशी और अखण्ड द्रव्य है । इन द्रव्यों में कभी विभाग नहीं होता है । फिर भी प्रयोजनवश उनमें ऊर्ध्वलोक का धर्मास्तिकाय, अधोलोक का अधर्मास्तिकाय, घटाकाश, पटाकाश, हस्तभागावच्छिन्न जीवप्रदेश, पादभागावच्छिन्न जीवप्रदेश ऐसी भेदकल्पना भी की जाती है। भेदकल्पना रहित शुद्ध द्रव्यार्थिकनय द्रव्य में भेद कल्पना को गौण करके अखण्ड द्रव्य को प्रधान रूप से ग्रहण करता है ।
असद्भूत व्यवहारथी रे, जीव मूत्त पणि होई परमनयइ पुद्गल विना रे, द्रव्य अमूर्त तुं जोयो रे
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1170 पुद्गलनइ अकवीसमो रे, इम तो भाव विलुप्त णी असद्भूत नयइ रे, परोक्ष अणुअ अमूत्तो
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द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13/8
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 13 / 12
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