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हैं। परिणामस्वरूप विरोधी प्रवृत्तियों और विरोधी मतभेदों का जन्म होता है। इन विरोधी या एकान्तिक मतभेदों ने जीवन को सुलझाने के अपेक्षा और अधिक उलझाकर संघर्ष और निराशाओं को उत्पन्न करने का ही काम किया ।
जब कोई जिज्ञासु जगत, जीवन और जीवन सम्बन्धी प्रश्नों के समाधान के लिए संसार के विभिन्न दार्शनिक परंपराओं का अध्ययन करता है तो घोर निराशा में पड़ जाता है और उसकी दृष्टि और अधिक उलझ जाती है। इसका कारण यह है कि विभिन्न दार्शनिक परंपराओं में जीव, जगत और जीवन के विषयक इतने परस्पर विरोधी विचारों को प्रस्तुत किया गया है जिससे उनमें आकाश-पाताल का अन्तर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उदाहरणार्थ आत्मतत्त्व के विषय में ही विभिन्न परस्पर विरोधी विचारों को रखा गया है। कोई दर्शन आत्मा को नित्य मानता है, कोई उसे अनित्य मानता है । कोई आत्मा को एक कहता है तो कोई अनेक कहता है। किसी दर्शन के अनुसार आत्मा विभु है तो अन्य किसी दर्शन के अनुसार आत्मा अणु है। आत्मा जैसे विषय पर भी दार्शनिक एकमत नहीं हो पाये। ऐसी स्थिति में जिज्ञासु को निराश होना स्वाभाविक ही है कि आखिर सत्य क्या है ?
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92 अनेकान्त, स्यादवाद और सप्तभंगी,
जैन दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद के आधार पर इस समस्या का समाधान किया है। अनेकान्तिक दृष्टि के माध्यम से परस्पर विरोधी दार्शनिक अवधारणाओं के विरोधों का परिहार करके समन्वय स्थापित करने के प्रयास किये गये हैं। 2 अनेकान्तवाद समस्त दार्शनिक समस्याओं और उलझनों की गुत्थियों को सुलझाने के लिए मार्ग प्रस्तुत करता है । समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, यशोविजयजी आदि अनेक दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद के बल पर ही नित्य - अनित्य, भेद - अभेद, द्वैत-अद्वैत, अस्तित्व-नासित्व आदि विरोधी विचारों का युक्तिसंगत समन्वय किया है। 'शास्त्रवार्ता- समुच्चय' नामक ग्रन्थ में हरिभद्रसूरि ने विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। देवेन्द्रमुनि के शब्दों में अनेकान्तवाद रूपी
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