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अभिव्यक्ति के लिए भाषा ही एकमात्र साधन है, जो अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष है। एक ओर वस्तु के धर्मों की संख्या अनन्त है और दूसरी ओर भाषा के शब्दों की संख्या सीमित है। इस कारण से वस्तु के अनेक धर्म अकथित ही रह जाते हैं। भाषा में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो वस्तु के पूर्ण स्वरूप को प्रकट कर सके। एक शब्द वस्तु के एक निश्चित धर्म का ही प्रतिपादन कर सकता है। पुनः वस्तु में ऐसे अनन्त धर्म हैं जिनके प्रकाशन के लिए भाषा के पास कोई शब्द नहीं है। उदाहरण के लिए- कोयला, कोयल और भंवरा सभी काले होने पर भी उनके कालेपन में भिन्नता है। परन्तु भाषा के माध्यम से इनके अलग-अलग कालेपन को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। इतना ही कहा जा सकता है कि 'काला है। 90 मानव की भिन्न-भिन्न अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए भाषा में भिन्न-भिन्न शब्द नहीं है।
_ जिनभद्रगणि ने कहा है कि संसार के अनन्त वस्तुएँ अनभिलप्य है, जिनका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता है। जो अभिलप्य पदार्थ है, उनका भी अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय है और जो प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं, उनका भी अनन्तवाँ भाग ही सूत्रबद्ध है। इसलिए वस्तु के संदर्भ में सापेक्ष कथन ही उसके यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन कर सकता है। क्योंकि निरपेक्ष कथन में वस्तु के अनेक धर्म अनुक्त रह जाने के कारण या उन धर्मों का निषेध हो जाने से वह कथन असत्य हो जाता है। इसलिए कथन की पूर्ण सत्यता को बनाये रखने के लिए एवं वस्तु के पूर्ण ज्ञान के लिए सापेक्ष कथन पद्धति ही समीचीन हो सकती है।
अनेकान्त की अपरिहार्यता -
सामान्य रूप से संसार के प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज, प्रत्येक धर्म और प्रत्येक दर्शन यही दावा करते हैं कि उनके मान्य विचार, मार्ग और सिद्धान्त ही सत्य
" अनेकान्त, स्यादवाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 63 स्यावाद और सप्तभंगीनय, डॉ. भिखारीराम यादव, पृ. 63 "पण्णवणिज्जा भावा, अनंतभागो तु अण्णभिलप्पणं। पण्णवणिज्जाणं पण, अनंतभागो सुदविबद्धों। ... ................. विशेषावश्यक भाष्य, गा. 35
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