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________________ किसी सूखे वृक्ष को देखकर एक व्यक्ति उसे ढूंठ कहता है और दूसरे व्यक्ति को वही ढूंठ मनुष्य के रूप में दिखाई देता है। इस कारण से हम वस्तु को वस्तु के यथार्थ स्वरूप से नहीं जानकर, वस्तु को उस रूप में जानते हैं, जिस रूप में इन्द्रियाँ हमारे समक्ष वस्तु को उपस्थित करती हैं। अतः हमारा ज्ञान स्वतन्त्र न होकर इन्द्रियाँ सापेक्ष है। डॉ. सागरमल जैन का कथन है कि हमारा ज्ञान इन्द्रियाँ सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है जिस कोण से वस्तु देखी जाती है। दूर से वस्तु छोटी और समीप से बड़ी दिखाई देती है। भिन्न-भिन्न कोण से लिया गया टेबल का फोटो भिन्न-भिन्न दिखाई देगा। अतः इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त अनुभविक ज्ञान दिशा, काल और व्यक्ति सापेक्ष होता है। मानव अपने इन्द्रियानुभूत ज्ञान की सत्यता की प्रमाणिकता को जानने के लिए अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है, परन्तु तर्कबुद्धि भी कारण-कार्य, एक-अनेक, अस्ति–नास्ति आदि विचारों से घिरी हुई होने से बौद्धिक ज्ञान भी सापेक्ष ही होता है। मनुष्य इन अपूर्ण इन्द्रियाँ और तर्कबुद्धि पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु उतनी नहीं है, जितनी व्यक्ति उसे जान पाता है। इसलिए व्यक्ति अपने आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान से निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता है। वस्तु का स्वरूप इतना गुह्य है कि साधारण मनुष्य के लिए उसका पूर्णतः ज्ञान प्राप्त करना असंभव है। भाषा की सीमितता और सापेक्षता : यदि कोई पूर्ण ज्ञानी वस्तु के यथार्थ स्वरूप का साक्षात्कार कर भी ले तो भी सत्य को निरपेक्ष रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। सत्य को निरपेक्ष रूप से जाना जा सकता है, परन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता हैं क्योंकि 7 अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 12-13 वही, पृ. 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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