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2. अनेकान्तवाद और नयवाद :
जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्तों में अनेकान्तवाद और नयवाद प्रमुख हैं। जैनदर्शन में वस्तु तत्त्व के विवेचन की शैली मूलतः अनेकान्तवाद और नयवाद पर आधारित है। वस्तु की अनंतधर्मात्मकता की स्थापना अनेकान्तवाद है और वस्तु तत्त्व के स्वरूप का विवेचन किस आधार पर किया गया है, वह दृष्टि नयवाद कहलाती है। अनंत धर्मात्मक वस्तु को अपेक्षा भेद से जिस आधार पर समझा जाता है, उसे नयवाद कहा जाता है। वक्ता के कथन को उसकी विवक्षा सहित समझने की जो शैली है, उसे ही जैन दार्शनिकों ने नय के रूप में विवेचित किया है। वस्तुतः सत्ता के विवेचन की दो शैली रही हुई है। एक संश्लेषणात्मक और दूसरी विश्लेषणात्मक है। वस्तु तत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न एकान्तवादों का निराकरण करके उनको समन्वित करते हुए जो संश्लेषणात्मक विवेचन होता है, उसे अनेकान्तवाद कहते हैं। इसके विपरीत वस्तु तत्त्व के एक पक्ष को प्रमुख करके जो दृष्टिविशेष पर आधारित विवेचन शैली होती है, उसे नयवाद कहा जाता है।
अनेकान्तवाद वस्तु तत्त्व के विभिन्न पक्षों को संश्लेषित करके प्रतिपादन करता है, जबकि नयवाद वस्तु तत्त्व के विभिन्न पक्षों में किसी एक पक्ष को मुख्य और अन्य पक्ष को गौण करके विश्लेषणपूर्वक विवेचन करता है। अनेकान्तवाद और नयवाद दोनों ही वस्तु तत्त्व के विवेचन की शैली है। अनेकान्तवाद समग्रग्राही और नयवाद अंशग्राही है। जैन दार्शनिकों ने वस्तु तत्त्व के विवेचन में इन्हीं दो शैली का आश्रय लिया है। संश्लेषणात्मक शैली को अनेकान्तवाद और विश्लेषणात्मक शैली को नयवाद कहा गया है। आगे हम इन दोनों ही शैलियों का विस्तार से विवेचन करेंगे।
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