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अनेकान्तवाद और नयवाद का सहसम्बन्ध :
यदि अनेकान्तवाद के आधार पर यह माना जाता है कि वस्तु अनंत धर्मात्मक है तो भाषाशास्त्र की दृष्टि से वस्तु के उन अनंत धर्मों का कथन एक साथ संभव नहीं है। क्योंकि किसी वस्तु के संदर्भ में कोई भी कथन किसी एक गुण-धर्म को लेकर ही संभव है, चाहे उस गुण-धर्म का विधान या निषेध किया जाय। न तो अनंत धर्मों का कथन, न किसी एक गुण-धर्म का विधि और निषेध का कथन युगपत् रूप से संभव है। कोई भी कथन निरपेक्ष नहीं होता है। जिस प्रकार यदि हम किसी वस्तु का फोटो खींचना चाहे और यह कहें कि हम किसी भी एंगल से फोटो नहीं लेंगे तो फोटो खींच पाना ही संभव नहीं होगा। इसी प्रकार कोई भी कथन किसी न किसी विवक्षा से ही होता है। विवक्षा के आधार पर किसी गुण धर्म को मुख्य बनाकर कथन किया जाता है। शेष गुण-धर्मों को गौण मानकर उनकी विवक्षा नहीं रखी जाती है। अतः अनेकान्तवाद को स्वीकार करने पर नयवाद को स्वीकार करना ही पड़ता है।
नयवाद इस बात को स्वीकार करता है कि अनंत धर्मात्मक वस्तु के किसी एक गुण-धर्म का विधान या निषेध किस अपेक्षा से किया गया है। नयवाद का मुख्य उद्देश्य वस्तु तत्त्व के किसी एक गुण-धर्म विशेष का किसी अपेक्षा विशेष के आधार पर प्रतिपादन या निषेध करना होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकान्तवाद और नयवाद दोनों एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। अनंत धर्मात्मक वस्तु के धर्मविशेष का प्रतिपादन नय-विशेष के आधार पर ही होता है।
एक अन्य दृष्टि से देखें तो वस्तु सामान्य–विशेषात्मक है। अनेकान्तिकदृष्टि वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखती है, किन्तु उस अनुभूत वस्तु के विविध पक्षों का युगपत् रूप से प्रतिपादन तो संभव नहीं होता है। अतः उसे कहने के लिए नय का आश्रय लेना ही पड़ता है। यदि अनंत धर्मात्मक वस्तु के संदर्भ में नयवाद को स्वीकार नहीं करें तो वह वस्तु अनुक्त ही रह जाएगी। जिस प्रकार फोटो खींचने में एंगल आवश्यक है, उसी प्रकार वस्तु के प्रतिपादन के संदर्भ में नयवाद आवश्यक है।
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