SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 340 यशोविजयजी ने 'जैनतर्कभाषा' में सामान्य संग्रहनय को पर - सामान्य भी कहा है। जो संग्रहनय समस्त विशेषों के प्रति उदासीन होकर सत्ता मात्र को स्वीकार करता है, वह परसंग्रहनय है। जैसे विश्व एक रूप है, क्योंकि सर्वपदार्थ सत् है। 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' आदि ग्रन्थों में भी संग्रहनय के पर और अपर रूप से दो भेद किये गये हैं । 341 नयचक्र में शुद्ध और अशुद्ध रूप से संग्रहनय के दो भेद किये गये है। पदार्थों के परस्पर विरोध को गौण करके सत् रूप से सबको संग्रहित करना परसंग्रहनय का विषय है । 342 परसंग्रहनय शुद्ध सत्तामात्र को विषय बनाकर समस्त विशेषों के प्रति उदासीन रहता है। यह नय पर - सामान्य को ही विषय बनाता है । 343 इस प्रकार अभेदग्राही और शुद्ध सन्मात्र को अपनी दृष्टि में लेने वाले संग्रहनय को सामान्य या पर या शुद्ध संग्रहनय कहा है । 2. विशेष संग्रहनय : संग्रहनय सभी पदार्थों को एवं उनके भेदों को तथा द्रव्य को गुण एवं पर्याय सहित संग्रहित करता है। 344 किसी एक के अन्तर्गत भेदों का संग्रह करनेवाला विशेष संग्रहनय कहलाता है । सामान्यसंग्रहनय सत्ता या महासामान्य को अपना विषय बनाता है। किन्तु उसकी एक जाति विशेष को ग्रहण करनेवाला अशुद्धसंग्रहनय है । 345 340 सद्वेधा परोऽपरश्च 341 स च परोऽपरश्च 342 अपरोप्परमविरोहे सव्वं अत्थित्ति सुद्ध संगह 343 अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्ध द्रव्यं 344 जो संगहदि दव्वं, देसं वा विविह दव्वपज्जायं 345 अवरोप्परमविरोहे सव्वं अत्थित्ति 155 Jain Education International जैनतर्कभाषा, पृ. 60 प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग - 3, सू. 6 / 74 पर भाष्य नयचक्र, गा. 208 प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 7/15 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 270 नयचक्र, गा. 208 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy