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द्रव्य और पर्याय में भेद और अभेद की आवश्यकता :
जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया था कि द्रव्य की अनुभूति हमें गुण और पर्याय के माध्यम से ही होती है। द्रव्य वस्तु का सत्ता पक्ष है एवं गुण और पर्याय उसके अभिव्यक्ति के पक्ष हैं। सामान्य व्यक्ति के लिए विशुद्ध द्रव्य को जानना और बता पाना दोनों ही संभव नहीं है। गुण और पर्यायों के माध्यम से ही द्रव्य को जाना जाता है। गुण और पर्याय से रहित द्रव्य की कोई सत्ता ही नहीं है। द्रव्य की अभिव्यक्ति गुण और और पर्याय के माध्यम से ही होने से द्रव्य के बोध के लिए गुण और पर्याय की आवश्यकता है। संसार में जो भी प्रतीति का विषय है वह गुण और पर्याय ही है। अतः द्रव्य की प्रतीति के लिए गुण और पर्याय की आवश्यकता है। यह सत्य है कि द्रव्य के अभाव में गुण और पर्याय नहीं होते हैं। किन्तु लोक व्यवहार अमूर्त द्रव्य के आधार पर नहीं होता है। अपितु उसके गुण और पर्याय के आधार पर ही होता है। संज्ञा या नामकरण के लिए भी द्रव्य के गुण और पर्याय को मानना आवश्यक है। क्योंकि नामकरण गुण या पर्याय के आधार पर ही होता है। मात्र यही नहीं द्रव्य इन्द्रियग्राह्य नहीं होता है। उसके गुणपर्याय ही इन्द्रियग्राह्य होते हैं। अतः द्रव्य गुण एवं पर्याय रहित होगा तो वह निरपेक्ष होगा। निरपेक्ष सत्ता अवाच्य होगी, जबकि लोक व्यवहार वाच्य के आधार पर ही होता है।
द्रव्य का प्रत्यक्ष उसके गुण और पर्याय के माध्यम से ही होता है। यदि द्रव्य की गुण और पर्याय को छोड़ दिया जाय तो द्रव्य का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। क्योंकि गुण और पर्याय ही हमारे इन्द्रियों के विषय बनते हैं और उनके आधार पर ही हम द्रव्य की कल्पना करते हैं। जैसे बिजली के तारों में रहे हुए विद्युतावेश को देखा नहीं जा सकता है, लेकिन उसकी गतिविधियों के माध्यम से उसका बोध हो सकता है। उसी तरह गुण और पर्याय के माध्यम से ही द्रव्य का बोध होता है और द्रव्य अपनी अभिव्यक्ति गुण और पर्याय के माध्यम से ही होता है।
द्रव्य सामान्य है और गुण विशेष है। सामान्य की अनुभूति विशेषों में रही हुई एकरूपता के कारण ही होती है और यह एकरूपता गुण और पर्याय के कारण होती
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