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है। अतः द्रव्य के बोध, अनुभूति और अभिव्यक्ति के लिए गुण और पर्यायों की आवश्यकता है। प्रत्येक द्रव्य के अपने-अपने विशिष्ट गुण और उनकी विशिष्ट अवस्थाएं (पर्यायें) होती हैं और वही द्रव्य का बोध कराती हैं । अतः द्रव्य की अनुभूति, बोध, अभिव्यक्ति और उसका अर्थक्रियाकारित्व गुण और पर्याय के माध्यम से ही संभव है। इससे यह सिद्ध होता है कि द्रव्य की सत्ता को सिद्ध करने के लिए और उसे मानने के लिए अथवा उसकी शक्ति के अभिव्यक्ति के लिए गुण और पर्यायों की अवधारणा आवश्यक है ।
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जहाँ वेदान्त ने द्रव्य ( अद्वयब्रह्म) को स्वीकार करके जगत को मिथ्या कहा वहीं उसके विरोध में बौद्धदर्शन ने पर्याय (अवस्थान्तरण) को ही स्वीकार करके द्रव्य की सत्ता का ही निषेध कर दिया है । उपाध्याय यशोविजयजी के मत में ये दोनों ही एकांगी हैं। द्रव्य की सत्ता के लिए गुण और पर्याय और गुण एवं पर्याय की सत्ता के लिए द्रव्य की आवश्यकता है। यही जैनदर्शन का मूलमंत्र है ।
इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि द्रव्य का गुण और पर्यायों से एकान्तभेद और एकान्त अभेद मानना संभव नहीं है । द्रव्य का गुण और पर्यायों से एकान्त भेद मानने पर द्रव्य निरपेक्ष हो जावेगा और उनमें एकान्त अभेद मानने पर द्रव्य से भिन्न गुण और पर्याय की सत्ता का ही निषेध हो जावेगा। अतः द्रव्य गुण और पर्याय में परस्पर सापेक्ष रूप से भेद और अभेद दोनों मानना आवश्यक है।
क्या गुण की भी पर्याय होती है ?
दिगम्बर संप्रदाय के अनुसार जिस प्रकार पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति द्रव्य में है, उसी प्रकार पर्यायों को प्राप्त करने की शक्ति गुण में भी हैं द्रव्य की तरह गुण भी शक्ति रूप है । इस दृष्टि से पर्याय के द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय के रूप में दो भेद हैं। द्रव्य का रूपान्तर - परिवर्तन द्रव्यपर्याय है और गुणों का
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