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नवें में जैनागम प्ररूपित मोक्षमार्ग की चर्चा; दसवें में सर्वज्ञ के अस्तित्व का समर्थन और ग्यारहवें में शास्त्रप्रमाण को स्थिर करने हेतु शब्द और अर्थ के मध्य सम्बन्ध नहीं माननेवाले बौद्धमत का खण्डन किया गया है 1
इस प्रकार जैनेतर दर्शनों के मतों की गहरी समीक्षा के साथ स्त्रीमुक्ति का निषेध करने वाले दिगम्बर मत की भी कटु आलोचना की है । दार्शनिक मतों की नव्यन्याय शैली में की गई विस्तृत चर्चा को देखते हुए इस व्याख्या ग्रन्थ को स्वतन्त्र ग्रन्थ की संज्ञा भी दी जा सकती है।
12. षोडशकवृत्ति
हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित ' षोडशकप्रकरण' ग्रन्थ में धर्मसाधना के प्रारम्भ से लेकर मोक्षप्राप्ति तक का साधना मार्ग बताया गया है। इस में 16 अधिकार हैं और प्रत्येक अधिकार में 16-16 श्लोक हैं। इस ग्रन्थ पर यशोविजयजी ने 1600 श्लोक प्रमाण संस्कृत में टीका रचकर श्लोकों में छिपे गूढ़ार्थों को खोलकर ग्रन्थ की उपयोगिता को तो बढ़ाया ही है, साथ में ग्रन्थ को सरल और सर्वग्राही भी बनाया
है।
है ।
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सद्धर्भपरीक्षक नामक अधिकार में बाल, मध्यम और पंडित, ऐसी साधक की तीन अवस्था बताई है।
धर्मलक्षण अधिकार में प्रणिधान आदि पांच आशयों का वर्णन है ।
धर्मलिंग अधिकार में शम, संवेग आदि सम्यक्त्व के पांच लक्षणों का निरूपण
लोकोत्तर तत्त्व प्राप्ति अधिकार में सम्यक्त्व की सिद्धि से लोकोत्तर तत्त्व की प्राप्ति का उल्लेख है ।
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जिनभवन अधिकार में मंदिर की भूमि, लकड़ी आदि सामग्री तथा मंदिर बनानेवाला व्यक्ति आदि कैसे होने चाहिए, इत्यादि का प्रतिपादन है ।
जिनबिम्ब अधिकार में बिम्ब भराने की विधि, फलादि की चर्चा है ।
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