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फल के रस का भेद करना ही पड़ता है। अन्यथा संसार के समस्त कषायरसों का संग्रहण करना सम्राट के लिए भी संभव नहीं है।355 अतः सर्वसंग्रहनय के द्वारा गृहीत वस्तु अपने उत्तर भेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है। इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है।
अनुयोगद्वारसूत्र में द्रव्यों में विशेष भेद करने के लिए जो प्रवृत्त होता है, उसे व्यवहारनय कहा है। जिस वस्तु को संग्रहनय ने अभेदरूप से अपना विषय बनाया था, उसी वस्तु का व्यवहारनय परमाणु पर्यन्त निरन्तर भेद करता है।57 वस्तुओं को एक रूप से संग्रहित करने के बाद उनका अलग-अलग बोध कराने के लिए या उनका लोक-व्यवहार में उपयोग करने के लिए विशेष रूप से भेद करनेवाली दृष्टि व्यवहारनय है।58 ।
लोक प्रसिद्ध और प्रायः अधिकतर उपचार के आश्रयीभूत अर्थ को विस्तार करनेवाला व्यवहारनय है।359 जैसे कि लोक व्यवहार में भ्रमर तथा कोयल काली है, तोता हरा है, हंस श्वेत है। किन्तु निश्चयदृष्टि से इनमें पांचों ही वर्ण है।360 यह नय लोक व्यवहार में जो जैसा प्रसिद्ध है, उसे उसी रूप में स्वीकार करता है। जैसा कि 'रास्ता चलता है' वस्तुतः व्यक्ति चलता है, न कि रास्ता। किन्तु व्यवहार में यही कहा जाता है कि रास्ता चलता है। घड़ा चूता है, पर्वत जलता है, इत्यादि। व्यवहारनय लोक व्यवहार का अनुसरण करने से औपचारिक रूप से भेद का कथन करता है।361
महोपाध्याय यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में संग्रहनय के विषयभूत पदार्थों में भेद करने वाली दृष्टि को व्यवहारनय कहा है। संग्रहनय के समान ही
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355 कषायो भैषज्यम् .....
तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1/33 356 वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सव्व दव्वेसु ............................ अनुयोगद्वारसूत्र, गा. 137 357 जो संगहेण गहिद, विसेसरहिदं
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 273 358 लोक-व्यवहारपरो वा विशेषतो यस्मात् इति व्यवहार. ....... नयरहस्य नियवाद-मुनि फूलचंद, पृ.73 से उद्धृत 359 लौकिक-सम उपचार प्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार: ..................... तत्त्वार्थभाषा, 1/35 360 नयवाद- मुनि फूलचंद 'श्रमण', पृ. 75 361 भेदोपचारतथा वस्तु व्यवहियते इति व्यवहार:
आलापपद्धति, सू. 205
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