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व्यवहारनय के भी सामान्य और विशेष रूप से दो भेद किये हैं।362 प्रत्येक वस्तु जैसे सामान्यरूप है, वैसे ही विशेष रूप भी है। सामान्य रूपता वस्तु को समान बनाती है। जबकि विशेषरूपता वस्तु को विशेष या असमान बनाती है अर्थात् परस्पर भेद करती है। संग्रहनय की दृष्टि सामान्य होने से कोई भेद नहीं करती है। परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि विशेष की ओर होने से भेद करती है।383
'सभी द्रव्य परस्पर अविरोधी हैं इस सामान्य संग्रहनय के विषय का भेदक प्रथम व्यवहारनय है। जैसे द्रव्य दो प्रकार का है – जीव और अजीव 64
'सभी जीव समान हैं इस दूसरे संग्रहनय के विषय का भेदक दूसरा व्यवहारनय अर्थात् विशेष संग्रहनय का भेदक विशेष व्यवहारनय है। जैसे- जीव के दो प्रकार हैं – संसारी और सिद्ध65
द्रव्यानुयोगतर्कणा66 में भी उपरोक्त सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रह भेदक रूप से व्यवहारनय के दो भेद किये गये हैं। परन्तु नयचक्र 67 में संग्रहनय के द्वारा गृहित शुद्ध अर्थ के भेदक को शुद्ध व्यवहारनय और अशुद्ध अर्थ के भेदक को अशुद्ध व्यवहारनय कहा गया है।
इस प्रकार व्यवहारनय का मुख्य प्रयोजन है लोक व्यवहार । सामान्य संग्रह से लोक व्यवहार नहीं चलता है। 'द्रव्य लाओ ऐसा कहने से प्रश्न उठता है – कौनसा द्रव्य जीव या अजीव ? जीवद्रव्य में कौनसा जीव ? संसारी या मुक्त ? संसारी जीव
362 व्यवहार संग्रह विषय भेदक
द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 6/12 36 द्रव्यगुणपर्यायनोरास -भाग 1 विवेचन, अभयशेखरसूरि, पृ. 232 364 द्रव्यं जीवाजीवौ ............
......... .......... द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा.6/12 का टब्बा 365 जीवाः संसारीणः सिद्धाश्च ......... ............ ... वही 366 संग्रह भेदक व्यवहारोऽपि द्विविधः स्मृतः ........... द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्लो. 6/13 367 जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्धं सुद्धं वा .................... नयचक्र, गा. 209
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