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व्यवहार का अर्थ है –भेदक या भेद करने वाला। संग्रहनय के द्वारा संग्रहित शुद्ध-अशुद्ध अर्थ में जो भेद करता है, वही व्यवहारनय है।50 जैसे –सद्वस्तु के दो 'भेद हैं- चेतन और अचेतन । अचेतन तत्त्व के धर्मास्तिकाय आदि पांच भेद हैं। इनके भी रूपी और अरूपी रूप से दो भेद हैं। चेतन तत्त्व के संसारी और सिद्ध रूप से दो भेद है। पुनः संसारी के पांच सौ तरेसठ भेद हैं तो सिद्ध के भी पन्द्रह भेद है।
केवल जीव और अजीव कहने से व्यवहार नय नहीं चल सकता है। व्यवहार के लिए सदैव भेद-बुद्धि का आलम्बन लेना पड़ता है। वस्त्र कहने मात्र से भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों का अलग-अलग बोध नहीं होता है। जो केवल खादी ही चाहता है, वह वस्त्रों का विभाग किये बिना खादी नहीं पा सकता हैं अतः खादी का कपड़ा, मिल का कपड़ा इत्यादि भेद भी करने पड़ते हैं।51 व्यवहारनय यहाँ तक भेद करता जाता है जिसके आगे भेद की कल्पना संभव ही नहीं हो।
... इसलिए व्यवहारनय संग्रहनय के द्वारा संकलित पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करता है।52 सत् तो मात्र सत्ता है। सामान्य से भिन्न विशेष का आकाश पुष्प के समान कोई व्यवहार नहीं हो सकता है तथा विशेष से अतिरिक्त सामान्य का भी कोई अस्तित्व नहीं होता है।53 घट-पट आदि विशेषों से ही व्यवहार होता है। क्योंकि जल - धारण करना, तन-आवरण आदि क्रिया विशेष घट-पट से ही होती है। संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ का विशेष बोध करने के लिए उसका पृथक्करण व्यवहारनय ही करता है।354 किसी वैद्य के द्वारा 'कषायरस' को औषध के रूप में बताने मात्र से औषध ग्रहण नहीं हो सकता हैं आँवला आदि किसी विशेष कषायले
350 जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्धसुद्धं वा
नयचक्र, गा. 209 351 तत्त्वार्थसूत्र- सुखलालजी, पृ. 41 352 अ) संग्रहनयक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ............. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि 1/33 ब) संग्रहगृहीतार्थानां विधिपूर्वकमवहरणं ................... .............. प्रमेयकमलमार्तण्ड, 6/74 पर भाष्य स) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वक .. ............... जैनतर्कभाषा, पृ. 61 द) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां ..
प्रमाणनयतत्त्वालोक, सू. 7/23 353 उवलंभव्यवहाराभावाओ नित्विसेसभावाओ
विशेषावश्यक भाष्य, गा. 2214 354 विधिपूर्वकमवहरणं
...... तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1/33
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