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तत्त्व, द्रव्य, सत्, परमार्थ, शुद्ध, परम, पदार्थ, वास्तविक, सत्य इत्यादि अनेक रूपों में व्याख्यायित किया गया है।79
वेदान्त दर्शन की विभिन्न दार्शनिक धाराओं में विश्व के मौलिक तत्त्व के रूप में 'सत्' शब्द को प्रधानता दी गई है। प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद80 में उल्लेखित है - "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।" सत् एक है, किन्तु मनीषीगण उसे अनेक रूप से कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार दृश्य-अदृश्य के रूप में जो कुछ भी विद्यमान है, वह सब ब्रह्म है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्ता है।581 स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर विकसित दर्शन परम्पराओं में विशेष रूप से वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म आदि सप्त पदार्थों को महत्त्व दिया गया है, जबकि नैयायिकों ने इसके लिए 'तत्त्व' शब्द का प्रयोग किया है। न्यायदर्शन के 16 तत्त्वों में द्रव्य का उल्लेख प्रमेय के अन्तर्गत किया है। सांख्य दर्शन भी प्रकृति और पुरूष इन दोनों को तथा इनसे उत्पन्न बुद्धि, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों, पांच तन्मात्राओं और पंच महाभूतों को 'तत्त्व' ही कहता है। जहां तक बौद्धदर्शन का प्रश्न है, उनकी दृष्टि में विश्व मात्र एक 'प्रक्रिया' या 'धारा' है। उनके अनुसार इस प्रक्रिया से अलग कोई सत्ता नहीं है। जैनदर्शन में विश्व के मूलभूत घटकों के लिए 'सत्' अथवा 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग किया गया है।
जैनदर्शन के अनुसार विश्व अकृत्रिम है।82 अनादिकाल से है और अनादिकाल तक चलता रहेगा। ज्ञातव्य है कि यहां विश्व को अकृत्रिम कहने का जैन चिन्तकों का तात्पर्य कथमपि यह नहीं है कि विश्व कूटस्थ नित्य है और उसमें कोई परिवर्तन ही नहीं होता। परन्तु अकृत्रिम से आशय है कि लोक या विश्व किसी की सृष्टि या रचना नहीं है। लोक का स्वभाव तो परिवर्तनशील है। केवल प्रवाह या प्रक्रिया की
579 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-3, पृ. 352 580 ऋग्वे द, 1/164/46 581 सर्व खलु इदं ब्रह्म - छांदोग्य उपनिषद 3/14/1 582 लोगो अकिट्टिमो खलु - मूलाचार, गा. 7/2
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