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________________ अपेक्षा से ही लोक को शाश्वत या नित्य कहा जाता है। जैनागम भगवतीसूत्र में लोक को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा गया है। लोक अनन्तभूतकाल में था, वर्तमान है और अनन्त भविष्य में रहेगा । इसलिए शाश्वत है तथा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में लोक का विकास और हास होता रहने से लोक अशाश्वत भी है। हम सबका प्रत्यक्ष अनुभव भी यही है कि दृश्य जगत परिणमनशील है। यहां प्रतिपल कुछ नवीन उत्पन्न होता रहता है तो कुछ पुराना नष्ट भी होता रहता है । कुछ अवस्थायें बनती हैं तो कुछ अवस्थाएं मिटती भी हैं। इस उत्पत्ति - विनाश की प्रक्रिया के बीच कोई स्थायी तत्त्व भी है जिसके कारण यह जगत अनादिकाल से चल रहा है। उदाहरण के लिए प्रभु महावीर के समय की जो राजगृही नगरी थी, उसमें और वर्तमान राजगृही नगरी में बहुत कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होने पर भी राजगृही नगरी तो वही है। इस प्रकार लोक प्रवाह या प्रक्रिया की अपेक्षा से ही नित्य है, किन्तु स्वभावतः परिवर्तनशील है। जब जगत रूपी कार्य का स्वभाव / स्वरूप इस प्रकार का परिणमनशील है तो उसका कारण भी वैसा ही होना चाहिए, क्योंकि कार्यकारण सिद्धान्त का एक सामान्य नियम यह है कि जैसे गुणधर्म कारण में होते हैं वैसे ही गुणधर्म कार्य में परिलक्षित होते हैं। इसलिए जैनदर्शन में विश्व के मूलभूत घटकों के स्वरूप को परिणमनशील या परिणामी नित्य माना गया है अर्थात् अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों को स्वीकृत किया गया है । ऐसे परिणामी - नित्य तत्त्व को ही जैनदर्शन में 'द्रव्य' या 'सत्' शब्द से अभिहित किया गया है जो अपने आप में पूर्ण, स्वतन्त्र और विश्व का मौलिक घटक है। महोपाध्याय यशोविजयजी कृत प्रस्तुत ग्रन्थ 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' का मुख्य विवेच्य विषय द्रव्य और उसके गुण एवं पर्याय है । इस ग्रन्थ में द्रव्य के लक्षण, स्वरूप, प्रकार तथा द्रव्य के गुण और पर्यायों का विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रस्तुत अध्याय में यशोविजयजी ने द्रव्यगुणपर्यायनोरास में द्रव्य के लक्षण, स्वरूप और भेद की चर्चा किस प्रकार की है ? इस विश्लेषण के पूर्व आगमों और परवर्ती 583 भगवतीसूत्र, भाग - 4, 9 / 33 / 34 226 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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