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( अनेकों का एकीभाव करके पिंडितार्थ का संक्षेप कथन करता है, वह संग्रहनय है | 332 पिण्डित का अर्थ है - सामान्य - विशेष । इस नय की दृष्टि में सभी पदार्थ परस्पर अभिन्न है। क्योंकि सामान्य धर्म सभी में विद्यमान रहता है । सामान्य धर्म सर्व व्यापी है । जैसे कि द्रव्यत्व, अस्तित्व, प्रमेयत्व, आदि धर्म सभी पदार्थों में समान रूप से विद्यमान है। अतः इस आधार पर यह कहना कि 'सर्व सत्' या वेदान्त का यह कथन 'सर्व खलु इदं ब्रह्म' संग्रहनय का विषय है ।
'सर्वेऽपि भेदाः सामान्यरूपतया संगृहयतेऽनेनेति संग्रह' - जिसके द्वारा सभी भेद और उभभेदों का संग्रह किया जाए वह संग्रहनय कहलाता है । 333 यह नय विभिन्न प्रकार के वस्तुओं या व्यक्तियों को किसी एक सामान्य तत्त्व के आधार पर संग्रहित कर लेता है।
स्वजाति के भेदरहित सभी पर्यायों को एक मानकर सामान्यतया सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है। जैसे सत् द्रव्य आदि । 334 सत् कहने पर अस्तित्ववान सभी पदार्थों का ग्रहण हो जाता है । द्रव्य शब्द से धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्यों के द्रव्यत्वनामक सामान्य धर्म से युक्त सभी द्रव्यों का ग्रहण भेद - प्रभेदों सहित हो जाता है। इस प्रकार संग्रहनय का अभिप्राय पदार्थ के संपूर्ण विशेषों के प्रति उदासीन होकर सत्तामात्र शुद्ध द्रव्य को स्वीकार करना है। 335 अतः यह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय
,336
है
पदार्थों के सामान्य और विशेष धर्मो को ग्रहण करके सामान्य को ही दृष्टिकोण में लेना संग्रहनय का अभिप्राय है । सामान्य से भिन्न विशेष का अस्तित्व आकाशपुष्प की तरह नहीं होने से संग्रहनय वस्तु के सामान्य मात्र को ही ग्रहण
1332 संगहतिपिंडितत्थं संगहवयणं समासओ बिंति
333 नयवाद - मुनि फूलचन्द्र, पृ. 62 से उद्धृत
334 अ) स्वजात्यविरोधनैकध्यमुपानीय
ब) स्वजात्यविरोधनैकध्यमुपानीययार्थानाक्रान्तभेदात्
335 'शुद्ध द्रव्यमभिप्रेति सन्मात्रं संग्रहः
336 दव्वदिठयनय पयडी सुद्धासंगहय - रूवणा विसओ
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आवश्यक निर्युक्ति, गा. 469
सर्वार्थसिद्धि, 1/33
प्रमेयकमलमार्तण्ड, 6/74 पर भाष्य भाग - 3
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1/33/51
सन्मतिप्रकरण, गा. 1/4
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