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मानव भव में पुरूष रूप जन्म लेनेवाला जीव मृत्युपर्यन्त स्त्री, नपुंसक, देव, तिर्यंच आदि नहीं कहलाकर पुरूष ही कहलाता है। इसलिए पुरूष शब्द से वाच्य, जन्म से मृत्युपर्यन्त रहनेवाली शारीरिक पुरूषाकृति रूप से अनुगत् और दीर्घकालवर्ती यह पुरूषरूप पर्याय जीव की व्यंजन पर्याय है तथापि इसी पुरूष में कालक्रम से आनेवाली बाल्यावस्थारूप पर्याय, तरूणावस्थारूप पर्याय, वृद्धावस्थारूप पर्याय आदि एकसमयवर्ती नहीं होने पर भी, पुरूष रूप पर्याय की अपेक्षा से अल्पकालवर्ती होने से उपचार से अर्थपर्याय कही जाती है। ये पर्यायें एक समयवर्ती नहीं होने से अशुद्ध अर्थपर्याय हैं। 1250
इस प्रकार ग्रन्थकार ने जीव की आठ प्रकार की पर्यायों को व्याख्यायित किया
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'नयचक्को' (माइल्लधवलकृत) के परिशिष्ट-1 में दी गई देवसेन आचार्य विरचित 'आलापपद्धति' में पर्याय के स्वभावपर्याय और विभावपर्याय के भेद से दो भेद किये गये हैं।251, जबकि श्रीमान शेठ अरविंदरावजी से प्रकाशित 'आलापपद्धति' में पर्याय के व्यंजन और अर्थपर्याय के रूप में दो भेद करके पुनः व्यंजनपर्याय के स्वभाव व्यंजनपर्याय और विभाव व्यंजनपर्याय के रूप में दो भेद तथा अर्थ पर्याय के स्वभाव अर्थपर्याय और विभाव अर्थपर्याय के रूप में दो भेद किये हैं। 252 प्रत्येक द्रव्य और गुण में अगुरूलघुगुण की षट्गुण हानिवृद्धि से उत्पन्न होनेवाली पर्यायों को स्वभाव अर्थपर्याय कहा गया है। 253 षट्गुणी वृद्धि हानि का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है1254.
1250 द्रव्यगुणपर्यायनोरास, भाग-2, –धीरजलाल डाह्यालाल महेता, पृ. 665, 666 1251 गुणविकाराः पर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात् –............ नयचक्को, परिशिष्ट-1, पृ.211 1252 गुण विकाराः पर्यायाः । ते द्वधा । अर्थ-व्यंजन-पर्याय-भेदात्
अर्थपर्यायः द्विविधाः स्वभाव विभाव भेदात् व्यंजनपर्यायः ते द्विविधाः स्वभाव विभाव भेदात् – आलापपद्धति, सू. 15, 16, 19 1253 अगुरूलघु विकाराः स्वभावपर्यायः ते द्वादशधा। षट्स्थान पतित हानिवृद्धिरूपाः ....आलापपद्धति, सू.17 1254 श्रीधवलासार, प्रश्न 1215, पृ. 285
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