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ही रहेगा। उसकी बन्धन और मुक्ति दोनों संभव नहीं होगी। अतएव जीव को परिणमनशील मानना ही युक्तिसंगत है।1199
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पर्याय के आधार पर ही द्रव्य का बोध करता है। व्यक्ति शुद्ध द्रव्य को देख नहीं सकता है। उसकी पर्यायों को ही देखता है। आम को उसकी रूपपर्याय, गन्धपर्याय, रसपर्याय आदि के माध्यम से ही जाना जा सकता है। किन्तु सभी पर्यायों को अर्थात् द्रव्य को एकसाथ जानने के कोई साधन नही है।1200 इसलिए द्रव्य के बोध के लिए पर्याय की अवधारणा आवश्यक है। अतः जैनदर्शन का प्रसिद्ध मंत्र यह है कि द्रव्य शून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य नहीं होता है।
यशोविजयजी की दृष्टि में पर्याय का स्वरूप -
उपाध्याय यशोविजयजी ने द्रव्य के क्रमभावी धर्मों को पर्याय कहा है।1201 एक के बाद एक, ऐसे क्रम से आने वाले धर्म पर्याय हैं। द्रव्य का वह धर्म जो द्रव्य के साथ सदा नहीं रहता है और जो क्रम से बदलता रहता है, वह पर्याय है। हरिभद्र सूरि ने द्रव्य के क्रमवर्ती धर्म को ही पर्याय के रूप में अभिव्यंजित किया है।1202 प्रमाणनयतत्त्वालोक में भी लगभग पर्याय को क्रमभावी ही कहा है। एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणमन को पर्याय कहा जाता है। जैसे - आत्मा के सुख-दुःख आदि । 203 द्रव्य की एक पर्याय (अवस्था) का नाश होने पर उसके स्थान पर दूसरी पर्याय (अवस्था) उत्पन्न हो जाती है। इसलिए पर्याय क्रमभावी हैं। स्याद्वादमंजरी'204 में जीव, अजीव आदि परमार्थ वस्तुओं के अनन्तधर्मों में से जो धर्म सहभावी और
1199 योगबिन्दु, श्लो. 480 से 482 1200 जैनदर्शन के मूल सूत्र, -आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 79 1201 धरम कहीजइ गुण-सहभावी, क्रमभावी पर्यायो रे ............. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 2/2 1202 आवश्यक नियुक्ति – हरिभद्र वृत्ति, 978 1203 पर्यायस्तु क्रमभावी, यथा तत्रैव सुखदुःखादि – प्रमाणयतत्त्वालोक, सू. 5/8 1204 स्याद्वादमंजरी, गा. 22 की टीका, पृ. 200
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