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परिणमनपने को अशुद्ध स्वभाव कहा जाता है। जीव और पुद्गल दोनों में शुद्ध और अशुद्ध दोनों स्वभाव पाये जाते हैं।
अपने स्वाभाविक गुणों में सहज परिणमन करने से जीवद्रव्य शुद्ध स्वभाव वाला भी है और कर्मरूप परद्रव्य के संयोग से ( औदायिकभाव से) देव, नारकी, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, राजा, रंक, रोगी, निरोगी आदि पर्याय के रूप में परिणमन करने से जीव अशुद्धस्वभाववाला भी है। इसी प्रकार पुद्गलद्रव्य के अपने वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शादि गुणों में परिणमन करना शुद्ध स्वभाव तथा जीव के संयोग से पुद्गल का शरीरादि के रूप में परिणमन करना अशुद्ध स्वभाव है ।
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धर्मादि चार द्रव्य को व्यवहारनय से ही अपरिणामी कहा जाता है। इसलिए इन द्रव्यों का जीव और पुद्गलद्रव्य के साथ गतिसहायक, स्थितिसहायक, अवगाहनसहायक, वर्तनासहायक के रूप में संयोग होने पर भी भिन्न-भिन्न रूप से परिणमन नहीं होता है। इस कारण से इन द्रव्यों में अशुद्ध स्वभाव नहीं है तथा अशुद्धस्वभाव के अभाव में उसका प्रतिपक्षी शुद्ध स्वभाव भी नहीं है ।
जीवद्रव्य में शुद्ध स्वभाव नहीं मानने पर संसारी जीव कभी भी शुद्ध स्वभाववाला नहीं हो सकेगा अर्थात् संसारी अशुद्ध स्वभाववाले जीव का कदापि मोक्ष नहीं होगा। पुनः जीव में अशुद्धस्वभाव को नहीं मानने पर जीव एकान्तरूप से शुद्ध बुद्ध हो जाने से कर्मबन्धन और उसके विपाकोदय के परिणामस्वरूप जीव का विभिन्न रूपों में परिणमन आदि घटित नहीं होगा । 1145 इसी प्रकार जीव में शुद्ध और अशुद्ध स्वभाव को मानने से वेदान्तियों का यह मत कि "ब्रह्म सत् होने से कभी अशुद्ध नहीं हो सकता है तथा जगत मिथ्या होने से कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता है।” – स्वतः निराकृत हो जाता है। क्योंकि कोई भी पदार्थ एकान्तरूप से शुद्ध या अशुद्ध नहीं हो सकता है। एकान्त शुद्ध स्वभाव को मानने पर संसार और एकान्त
1145 अ) आलापपद्धति, सू. 146, 147
ब) जी हो विण शुद्धता, न मुक्ति छइ, लाला लेप वगर न अशुद्ध
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. द्रव्यगुणपर्यायनोरास, गा. 12 / 9 का उत्तरार्ध
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