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नहीं होता है। सत्ता में जो उत्पाद और व्यय रूप परिणमन है वह पर्याय आश्रित है और जो ध्रुव है वह द्रव्याश्रित है। उत्पाद के बिना व्यय और व्यय के बिना उत्पाद संभव नहीं है, किन्तु उत्पाद और व्यय किसी ध्रुव में ही संभव है। अतः द्रव्य और पर्याय में परस्पर सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों में द्रव्य और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध भेदाभेद रूप है। वे कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है। क्योंकि जैनों की अनेकान्त दृष्टि इसी तथ्य की समर्थक है।
इसी अध्याय में हमने द्रव्य को सामान्य विशेषात्मक बताते हुए यह सिद्ध किया है कि द्रव्य अपनी सत्ता की अपेक्षा से सामान्य होते हुए भी पर्याय की अपेक्षा से विशेष भी है। क्योंकि द्रव्य को सामान्य विशेषात्मक मानने पर ही द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को कथंचित् भेदरूप है और कथंचित् अभेद रूप समझा जा सकता है। अतः अन्त में यह भी सिद्ध होता है कि उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत कृति में द्रव्य-गुण-पर्याय के सम्बन्ध को भेदाभेद ही माना है। इसी चर्चा के प्रसंग में द्रव्य-गुण-पर्याय के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर नैयायिकों की समीक्षा भी की है और जैन सम्मत भेदाभेद सम्बन्ध को सिद्ध भी किया है और अन्त में यह बताया है कि उपाध्याय यशोविजयजी द्रव्य, गुण, पर्याय के पारस्परिक भेदाभेदात्मक सम्बन्ध को किस प्रकार से सिद्ध करते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उपाध्याय यशोविजयजी द्रव्य, गुण और पर्याय की इस चर्चा में जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि को लेकर ही उनके पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध किया है। यही उनका वैशिष्ट्य है।
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