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________________ 342 यही कारण है कि जैनदर्शन वस्तु का सर्वथा नाश नहीं मानता है, अपितु केवल उसका रूपान्तरण या अवस्थान्तरण ही स्वीकार करता है। चूंकि अवस्थाएं या पर्यायें द्रव्य से अभिन्न होने से ऐसा कहा जाता है कि द्रव्य में उत्पाद और व्यय होता है। परन्तु परमार्थ से द्रव्य का न तो उत्पाद होता है और न ही व्यय होता है। द्रव्य तो त्रिकाल स्थायी और अनादिनिधन है। द्रव्य के पर्यायों का ही उत्पाद और व्यय होता है। द्रव्य का द्रव्यत्व तो सदा ध्रुव रहता है। बौद्धदर्शन द्रव्य के इस ध्रुवता को अस्वीकार करके केवल उत्पाद और विनाश को ही मानता है। इस दर्शन के मतानुसार पर्याय ही वास्तविक है। द्रव्य वास्तविक नहीं है। जैनदर्शन और न्याय–वैशेषिकदर्शन - जैनदर्शन गुण को द्रव्य के आश्रित और द्रव्य को गुणों का समुदाय मानता है। द्रव्य और गुण परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। न्याय–वैशेषिकदर्शन भी द्रव्य को गुण और क्रिया का आधार तो मानते हैं, परन्तु उनके अभिमत में गुण और द्रव्य सर्वथा भिन्न है। प्रथम क्षण में द्रव्य गुणों से रहित होता है, तदनंतर समवाय नामक पदार्थ से दोनों में सम्बन्ध स्थापित होता है।952 परन्तु समवाय सम्बन्ध से अनवस्था का दूषण आता है। यदि गुण द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता तो पुनः प्रश्न उठता है कि समवाय सम्बन्ध गुण और द्रव्य में किस सम्बन्ध से रहता है ? यदि समवाय सम्बन्ध अन्य समवाय सम्बन्ध से गुण और द्रव्य में रहता है तो उस समवाय के लिए भी दूसरे समवाय सम्बन्ध को मानना पड़ेगा। इस तरह अनवस्था दोष आता है।953 यदि समवाय सम्बन्ध बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य और गुण में रहता है तो समवाय की तरह गुण भी बिना किसी सम्बन्ध से द्रव्य में रह सकते हैं। अतः जैनदर्शन के अभिमत में द्रव्य और गुण परस्पर भिन्नाभिन्न है। बन्धमोक्षादिकं सर्व क्षणभंगाद् विरूध्यते – नयचक्र, पृ. 23 पर उद्धृत 952 भारतीय दर्शन, - जे. एन. सिन्हा, पृ. 113 953 नयचक्र, गा. 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003974
Book TitleDravya Gun Paryay no Ras Ek Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyasnehanjanashreeji
PublisherPriyasnehanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages551
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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